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________________ ( १३२ ) क कहिये है परन्तु जीवद्रव्यका गुण है तातें जीवकू छोडि अन्य पदार्थ में जाय नाहीं है ॥ २५५ ॥ आार्गे ज्ञान जीवके प्रदेशनिविषे तिष्ठता ही सर्वकूं जाने है ऐसें कहे हैं, गाणं ण जादि णेयं णेयं पिण जादि णाण सम्मि । णियणिय देसठियाणं ववहारो णाणणेयाणं ॥ २५६ ॥ भाषार्थ - ज्ञान है सो ज्ञेयविषै नाहीं जाय है, बहुरि ज्ञेय भी ज्ञान के प्रदेशनिविषै नाही आवै है. अपने अपने प्रदेशनिषेति है तौऊ ज्ञानकै अर ज्ञेयकै ज्ञेयज्ञायक व्यवहार है. भावार्थ - जैसे दर्पण अपने ठिकाण है. घटादिक वस्तु अपने ठिका है, तौऊ दर्पण की स्वच्छता ऐसी है मानूं दर्पघटाय ही बैठे है. ऐसें ही ज्ञानज्ञेयका व्यवहार जानना ॥ २५६ ॥ आगे मन:पर्यय अवधिज्ञान अर मति श्रुतज्ञानका सा मर्थ्य क है हैं, जयविणाणं ओहीणाणं च देसपचक्खं । मइ सुयणाणं कमसेो विसदपरोक्खं परोक्खं च २५७ भाषार्थ - मन:पर्ययज्ञान बहुरि अवधिज्ञान ए दोऊ तौ देशप्रत्यक्ष हैं, बहुरि मतिज्ञान है सो विशद कहिये प्रत्यक्ष भी है परोक्ष भी है. अर श्रुतज्ञान है सो परोक्ष ही है. भा वार्थ - मन:पर्यय अवधिज्ञान तो एकदेशप्रत्यक्ष हैं जातें जेते
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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