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________________ भावेण होइ लिंगीण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज भाव किं कीरइ दव्वलिंगेण ॥ २१८॥ भाव ही मुनि की पहचान है, द्रव्य (बाह्य तामझाम) नहीं। इसलिए मुनि के लिए भाव ही ग्राह्य होना चाहिए। उसके लिए द्रव्य द्वारा पहचान बनाना व्यर्थ है। दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भंदरेण दोसेण । जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरए ॥ २१६ ॥ बाहू नामक मुनि द्रव्यमुनि था। यानी मुनि के रूप में उसकी पहचान बाह्य तामझाम में थी। इसलिए अपने आभ्यन्तर दोष से उसने सम्पूर्ण दण्डक नगर को जलाया। उसे रौरव नरक में जाना पड़ा। अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपन्भट्ठो । दीवायणो त्ति णामो अणंतसंसारिओ जादो ॥ २२० ॥ बाहू मुनि की तरह एक द्वैपायन मुनि भी द्रव्य मुनि हुए। वे सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र से भ्रष्ट हुए। उन्हें अनन्त संसारी होना पड़ा। यानी वे अनन्त काल तक संसार में जन्म मरण से गुज़रते रहे। भावसमणो य धीरो जुवईजणबेढिओ विसुद्धमुई । णामेण सिवकुमारो परीत्तसंसारिओ जादो ॥२२१॥ उक्त द्रव्यमुनियों के विपरीत धैर्य और विशुद्ध मति से सम्पन्न एक शिवसागर नाम के भावमुनि हुए। स्त्रियाँ उन्हें घेरे रहती थीं। फिर भी उन्हें संसार से मुक्ति मिली।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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