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________________ देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर! अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ २१४ ॥ भगवान् ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली से देह आदि का परिग्रह तो छूट गया था लेकिन उनका मन मान कषाय से कलुषित बना रहा। उन्होंने कुछ समय तक कायोत्सर्ग योग भी धारण किया।(परन्तु केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। जब मान कषाय का कलुष उनकी आत्मा से धुल गया, तब जाकर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। इस प्रकार वे इस युग के सर्वप्रथम मोक्षगामी हुए।) महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो । सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ।। २१५ ॥ मधुपिंग मुनि ने तो देह के आहार आदि को भी छोड़ दिया था। लेकिन तप के फल की चाह से उन्हें भव्य जीवों द्वारा प्रणम्य भाव श्रमणत्व प्राप्त नहीं हुआ। अण्णं च वसिठ्ठमुणी पत्तो दुक्खं णियाणदोसेण । सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण दुरुढुल्लिओ जीवो ॥ २१६ ॥ दूसरे एक वासिष्ठ मुनि को भी तप के फल की चाह से दुःख ही प्राप्त हुआ। लोक में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्ममरण के रूप में परिभ्रमण नहीं किया। सो णत्थि तप्पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि । भावविरओ विसवणो जत्थ णं दुरुढुल्लिओ जीव ॥ २१७ ॥ चौरासी लाख योनियों से परिपूर्ण इस संसार में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ इस जीव ने भाव से विरत होने के कारण, श्रमण (मुनि) होने के बावजूद परिभ्रमण नहीं किया हो। 60
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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