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________________ जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं होदि सम्मत्तं ॥ २० ॥ जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि जीव आदि पदार्थों में श्रद्धान रखना व्यवहारगत सम्यग्दर्शन है और अपने आत्म स्वरूप का अनुभव करना, उसमें श्रद्धान रखना निश्चयगत सम्यग्दर्शन है। एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढमं मोक्खस्स ॥ २१ ॥ इस प्रकार गुणों एवं रत्नत्रय का सार जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रणीत सम्यग्दर्शन ही है। वही मोक्ष की पहली सीढ़ी है। उसे भावपूर्वक धारण करना चाहिए। जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणिदं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२ ॥ जिन्हें सम्भव हो वे इसे आचरण में ढालें। जिन्हें सम्भव न हो वे श्रद्धा बनाए रखें। जिनेन्द्र भगवान् ने श्रद्धावान को ही सम्यग्दृष्टि कहा है। दसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था । एदे दुवंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥ २३ ॥ जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय में भली प्रकार लीन हैं और गणधर आचार्यों का गुण बखान करते हैं वे वन्दनीय हैं।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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