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________________ सेयायेयविदण्हू उद्घददुस्सील सीलवंतो वि । सीलफलेणभुदयं तत्तो पुण लहंदि णिव्वाणं ॥ १६ ॥ पदार्थों की कल्याण-अकल्याणकारकता को समझने से व्यक्ति की दुःशीलता खत्म हो जाती है। वह शीलवान हो जाता है। शीलवान होने से उसे अभ्युदय (सभी सांसारिक सुखों) की और फिर मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदद | जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ १७ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के उक्त वचन विषय सुखों को दूर करने वाले, बुढ़ापे तथा मौत के रोग को हरने वाले और सभी दुःखों का क्षय करने वाले अमृत के समान हैं। एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्तिट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ॥ १८ ॥ जैन धर्म में तीन ही स्वरूप / वेश हैं - एक जिनेन्द्र भगवान् का नग्न रूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा आर्यिका का। इसमें किसी चौथे वेश की गुंजाइश नहीं है । छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेव्व ॥ १६ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पाँच अस्तिकायों, और सात तत्त्वों का विवेचन किया है । जो व्यक्ति इनमें श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है । 133
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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