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________________ [१४७] साथ जिसमकार माता अपने बच्चेके साथ प्रेम करती है उसीप्रकार अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले धीर वीर मुनिराज जो प्रेम करते रहते हैं वा उन धर्मात्माओंको देखकर प्रसन्न होते रहते हैं उसको धर्मवत्सलता कहते हैं । यह स्वर्ग-मोक्षको देनेवाली धर्मिवत्सलता भव्य जीवों को सदा काल अपने हृदयमें चिंतन करनी चाहिये । २९७ ॥ २९८ ॥ आसां ध्रुवं षोडशभावनानां, योगेन तीर्थंकरनामकर्म। लोके सदाश्चर्यकरं मनोज्ञ, जगत्प्रियं बध्यत एव भव्यैः ॥२९९॥ इस संसारमें भव्य जीव इन सोलह कारण भावनाओंके निमित्तसे आश्चर्य प्रगट करनेवाला अत्यंत मनोज्ञ और तीनों लोकोंको प्रिय ऐसा तीर्थकर नाम कर्मका बंध किया करते हैं ॥ २९९ ॥ श्रीकुंथुनाम्ना मुनिना स्वबुध्द्या, संसारबंधस्य विनाशहेतोः। प्रोक्ता ह्यमूः षोडश भावनाश्च, सौख्यप्रदा वाञ्छितदा मनोज्ञाः ॥३०॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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