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________________ [१४६] को धारण करके वा विद्या कलाओंको प्रगट करके, जिनमतमें कहे हुए मंत्रतंत्रों का प्रभाव दिखला करके, सबके साथ अविरोध रीतिसे अपनी प्रवृत्ति दिखला करके, धनादिकका दान दे करके और व्रत उपवास करके जहांपर जिनधर्मकी वृद्धि की जाती है उसको सुख देनेवाली धर्मकी प्रभावना कहते हैं । यह धर्मकी प्रभावना भव्य जीवों को सदाकाल करते रहना चाहिये ॥ २९५ ॥ २९६ ॥ निजात्मनिष्ठैः परमार्थपुष्टै-, स्तत्त्वार्थतुष्टैर्जिनधर्मजुष्टैः। सधर्मभिर्धर्मरतैश्च सार्द्ध, सदा प्रमोदः क्रियते च यत्र ॥२९७॥ वत्सेन सार्द्धं च यथा जनन्या, तथात्मनिष्ठैर्मुनिभिः सुधीरैः । वर्मोक्षदा वत्सलता सुभव्यैः, सधर्मणो वा हृदि भावनीया ॥२९८॥ जो साधर्मी जन अपने आत्मामें सदा लीन रहते हैं, जो परमार्थकी पुष्टि करते रहते हैं, तत्त्वार्थप्रेमसे सदा संतुष्ट रहते हैं, जिनधर्मको सदा प्रेमपूर्वक धारण करते हैं और धर्म में सदा लीन रहते हैं, ऐसे धर्मात्माओंके
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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