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________________ 1. अथ धर्मकृत्याहारव्याधिघटिकादीनां वर्णनं नाम तृतीयोल्लास : : 95 भोजनकाले जलपानं ---- पियन्नमृतपानीय मर्धभुक्ते महामतिः । भुञ्जीत वर्जयन्नन्ते छत्राह्वं पुष्फलं जलम् ॥ 46 ॥ भोजन जब आधा कर चुके तब जल पानी चाहिए। इस प्रकार जलपान करना अमृतपान के समान है और भोजनान्त में बहुत पानी नहीं पीना चाहिए। यह जलपान विषपान के समान कहा जाता है । स्निग्धमधुरप्राक्भक्ष्यते तदर्थ निर्देशमाह - सुस्निग्धमधुरैः पूर्वमश्रीयादन्वितं रसैः । द्रवाम्ललवणैर्मध्ये पर्यन्ते कटुतिक्तकैः ॥ 47 ॥ भोजन के पहिले अच्छी प्रकार से स्निग्ध (घृत, तेलमय) और मधुर पदार्थ (मिष्ठान्न) खाए। बीच में खट्टी वस्तुएँ खानी चाहिए और अन्त में कड़वे और तिक्त वस्तुओं को ग्रहण करे । * लवणाहारार्थ निर्देशं - नामिश्रं लवणं ग्राह्यं नैव केवलपाणिना । रसानपि न वैरस्य हेतून्संयोजयेन्मिथः ॥ 48 ॥ केवल नमक ग्रहण नहीं करना चाहिए। केवल हाथ से नमक नहीं लेना चाहिए। जिससे वस्तु विरस हो जाए वैसे मधुरादि रस की परस्पर मिलावट नहीं करनी चाहिए । त्यजेत्क्षारप्रभूतान्नमन्न दग्धादिकं त्यजेत् । कीटास्थिप्रमुखैर्युक्तमुच्छिष्टं चाखिलं त्यजेत् ॥ 49 ॥ जिस आहार में क्षार (नमक) अधिक डाल दिया गया हो और जला हुआ, बराबर नहीं चढ़ा हुआ, कीटादि जीवों और हड्डी इत्यादि से मिश्रित तथा किसी का उच्छिष्ट (झूठा ) अन्न- इन सबको छोड़ देना चाहिए । पश्वादीनां दुग्धोपयोगविचारमाह - धेन्वा नवप्रसूताया दशाहान्तर्भवं पयः । आरण्यकाविकौष्ट्रं च तथैवैकशफं त्यजेत् ॥ 50 ॥ नव प्रसूता गाय का दूध 10 दिन तक प्रयोग में नहीं ले । वन्य जीवों का दूध, विष्णुपुराण में भी आया है कि पहले मीठा पदार्थ, बीच में नमकीन व खट्टी तथा बाद में कड़वे व तिक्त पदार्थों को खाना चाहिए— अश्रीयात्तन्मयो भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम् । लवणाम्लौ तथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्ततः ॥ (विष्णु. 3, 11, 87 ) गरुडपुराण में यही मत इस प्रकार आया है— पूर्वं मधुरमनीयात् लवणान्नौ च मध्यतः । कटुतिक्तकषायांश्च पयश्चैव तथान्ततः ॥ ( आचार. 205, 144)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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