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________________ 78 : विवेकविलास नायक, बालक, देवतुल्य और वृद्धजनों को किसी भी समय नहीं ठगना चाहिए। भाव्यं प्रतिभुवा नैव दाक्षिण्येन च साक्षिणा । कोशपानादिकं चैव न कर्तव्यं यतस्ततः ॥ 67 ॥ इसी प्रकार बुद्धिमान को किसी के दक्षिणा- उपहार या लोभ से मिथ्या साक्षी नहीं बनना चाहिए। इसी प्रकार जहाँ-तहाँ, बात-बात में शपथ भी नहीं लेनी चाहिए। तत्र प्रतिवाद - - साध्वर्थे जीवरक्षायै गुरुदेवगृहादिषु । मिथ्याकृतैरपि नॄणां शपथैर्नास्ति पातकम् ॥ 68 ॥ सच्चे साधु-सज्जनों, जीवरक्षा, गुरु और देवगृह इनके लिए यदि कभी मिथ्या • शपथ भी ग्रहण करनी पड़े तो पाप नहीं लगता है। उद्यमवृत्त्याश्रयं असम्पत्त्या स्वमात्मानं नैवावगणयेद्बुधः । किन्तु कुर्याद्यथाशक्ति व्यवसायमुपायवित् ॥ 69 ॥ कभी सुजनों को निर्धन अवस्था में स्वात्मा की निन्दा नहीं करनी चाहिए अर्थात् गरीबी में कभी स्वयं को कोसे नहीं, अपितु उपाय खोजकर अपने यथा सामर्थ्य द्रव्योपार्जन के लिए उद्यम का आश्रय लेना चाहिए। अग्रणी व्यवसायीलक्षणं वृष्टिशीतातपक्षोभ - काममोहक्षुधादयः । न घ्नन्ति यस्य कार्याणि सौऽग्रणीर्व्यवसायिनाम् ॥ 70 ॥ वर्षा, जाड़ा, धूप, क्षोभ ( क्रोधादि से चित्त का चाञ्चल्य) काम, मोह, क्षुधा आदि प्रमुख विकार और बाधाएँ जिसके कार्य को कभी प्रभावित नहीं कर सकते, उस पुरुष को श्रेष्ठ व्यवसायी समझना चाहिए । यो द्यूतधातुवादादि सम्बन्धाद्धनमीहते । स मषीकूर्चकैर्धाम धवलीकर्तुमिच्छति ॥ 71 ॥ जो कोई व्यक्ति द्यूतक्रीड़ा या किमियागीरी (नकली धातु बनाने की कला ) से द्रव्योपार्जन करने की इच्छा रखता है, वह अपने घर पर स्याही पोतकर उसको सफेदपोश देखना चाहता है अर्थात् यह व्यर्थ है । अन्यायीधनं नोपयोगी इत्यर्थ कथ्यते अन्यायिदेवपाखण्डि तद्धनानां धनेन यः । वृद्धिमिच्छति मुग्धोऽसौ विषमत्ति जिजीविषुः ॥ 72 ॥ जो व्यक्ति अन्यायी, देव, पाखण्डी और कृपण - कंजूस- इनके धन से स्वयं
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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