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________________ 62 : विवेकविलास अभ्युत्तिष्ठेद्गूरो दृष्टेऽभिगच्छेतं तदागमे । उत्तमाङ्गेऽञ्जलिं न्यस्य ढौकयेत्स्वयमासनम् ॥ 191 ॥ गुरुदेव को देखते ही खड़े होना, अभिवादन के लिए सम्मुख जाना, मस्तक पर अञ्जलि करना और स्वयं ही आगे बढ़कर उनको आसन देना चाहिए । नमस्कुर्यात्ततो भक्त्या पर्युपासीत चादरात् । तद्याने त्वतुयायाच्च क्रमोऽयं गुरुसेवने ॥ 192 ॥ इसके अनन्तर गुरुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करना चाहिए। आदर से उनकी सेवा करनी चाहिए और जब पदार्पण करें तो उनका अनुगमन करते हुए पीछे चलना चाहिए। गुरु की सेवा यह क्रम कहा गया है। गौरवस्पदगुरुतुल्यं किं - शुद्धप्ररूपको ज्ञानी क्रियावानुपकारकः । धर्मविच्छेदरक्षी च गुरुगौरवमर्हति ॥ 193 ॥ ज्ञान की शुद्ध प्ररूपणा करने वाले, ज्ञानस्वरूप, क्रियापात्र, जीवमात्र पर उपकार करने वाले और धर्म-विच्छेद हो तो उसका रक्षण करने वाले गुरु सर्वथा पूजा योग्य हैं। तथापवादश्चाह— विचारावसरे मौनी लिप्सुर्धिप्सुश्च केवलम् । सर्वत्र चाटुवादी च गुरुर्मुक्तिपुरार्गला ॥ 194 ॥ जब भी कोई प्रश्न करें उस समय विचार पूर्वक प्रत्युत्तर देने की अपेक्षा मौन धारणकर बैठे रहने वाले, केवल द्रव्य के लोभी और पाखण्डी गुरु मुक्तिपुरी की अर्गला या ताले ही जानने चाहिए अर्थात् ऐसे जनों का सङ्ग नहीं करना ही उचित है। उल्लासोपसंहरति ―― इत्थं मया ब्राह्ममुर्हतमादौ कृत्वाभ्यधायि प्रहरस्यकृत्यम् । यस्य प्रकाशेन खेरिवोच्चै भवेर्देवश्यं कमलावबोधः ॥ 195 ॥ (प्रथमोल्लास के उपसंहार के रूप में ग्रन्थकार ने कहा है कि ) इस प्रकार ब्रह्ममुहूर्त्त से लगाकर दिवस के प्रथम प्रहर तक के कृत्य मैंने कहे हैं। जिस तरह सूर्य के प्रकाश से कमल का विकास होता है, उस तरह इस कृत्य के प्रकाशन और अनुकरण मात्र से कमला (लक्ष्मी) का बोधन होता है। इतिश्रीजिनदत्तसूरि विरचित विवेकविलासे दिनचर्यायां प्रथमोल्लासः॥ 1 ॥ इस प्रकार श्रीजिनदत्तसूरि विरचित 'विवेक विलास' में दिनचर्या संज्ञक प्रथम उल्लास पूर्ण हुआ ।
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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