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________________ अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लास : : 61 के रङ्ग से विपरीत दिखाई देती हो तो अति दोषकारक समझना चाहिए। * * शिल्परत्नम् में कहा गया है कि पाषाणादि में नन्द्यावर्त, शेषनाग, अश्व, श्रीवत्स, कूर्म, शङ्ख, स्वस्तिक, गज, गौ, वृषभ, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिङ्ग, तोरण, हरिण, प्रासाद, कमल, वज्र, गरुड अथवा शिव की जटा के सदृश रेखाएँ हो तो शुभ जानना चाहिए- नन्द्यावर्तवसुन्धराधरहय श्रीवत्सकूर्मोपरमाः शङ्खस्वस्तिक हस्तिगोवृषनिभाः शक्रेनदुसूर्योपमाः । छत्रस्रग्ध्वजलिङ्गतोरणमृगप्रासादपद्मोपमा वज्राभा गरुडोपमाश्च शुभदा रेखाः कपर्दोपमाः ॥ (शिल्परत्नं, पाषाण परीक्षम् ) 'समराङ्गण सूत्रधार' में धारा नरेश भोजराज ने शुभ शिलाओं की सूची दी है, जो विचारणीय है । आवास आदि के समय और प्रतिमादि के लिए प्रयोगकाल में इस पर गौर किया जाना श्रेयस्कर - 1. कुम्भ, 2. अङ्कुश, 3. ध्वज, 4. छत्र, 5. मत्स्य, 6. चामर, 7. तोरण, 8. दूर्वा, 9. नागफल ( नारियल ), 10. उष्णीष, 11. पुष्प, 12 स्वस्तिक, 13. वेदिका, 14. चामर, 15. नन्द्यावर्त, 16. कूर्म, 17. पद्म और 18. चन्द्रमा । मनुष्यों और पशुओं में अश्वों के पदचिह्नों वाली शिलाएँ मङ्गलकारी होती हैं। (समराङ्गणसूत्रधार वनसम्प्रेषणाध्याय) विष्णुधर्मोत्तरकार ने कोमल, सिकताहीन, प्रिय, गुणयुक्त, सरिता के जल से धूपित, पवित्र वृक्ष की छाया में छुपी रहने वाली, तीर्थाश्रय में रही शिला को भी ग्राह्य कहा है। श्वेत, पद्मवर्ण, कुसुम व औसतुल्य, पाण्डु, मुद्रवर्ण, कपोत व भौरें के वर्ण जैसी ये आठ वर्ण वाली शिलाएँ प्रशस्त हैं। कृष्णवर्णी शिला को छोड़ समुद्री झाग जैसी सफेद, हीरा जैसी, हीरक तुल्य आभावाली शिलाएँ लक्ष्मीवर्धक, पुत्र पौत्रवर्द्धक होती है। सितवर्णा या कृष्णवर्ण में हीरक आभा जैसी शिला बल प्रदायक वाली है। कृष्ण शिला जो लाल हीरे जैसी आभा दे, वह बहुदोषकारक है। सभी वर्णों के लिए सफेद शिला ही प्रशस्त है, जिसमें हीरक आभा हो- एकवर्णां समां स्त्रिग्धां निमग्तां च तथा क्षितौ । घातातिमात्रस्फुटनां दृढ़ा मृद्वीं मनोरमाम् ॥ कोमलां सिकताहीनां प्रियां दृङ्मनसोरपि । सरित्सलिलनिर्धूतां पवित्रा तु जलोषिताम् ॥ द्रुमच्छायोपगूढां च तीर्थाश्रमसमान्विताम्। आयामपरिणाहाढ्या ग्राह्यां प्राहुर्मनीषिणः ॥ श्वेतश्च पद्मवर्णश्च कुसुमोषरसान्निभम् । पाण्डुरा मुद्द्रवर्णश्च कापोतो भृङ्गसन्निभः ॥ ज्ञेयाः प्रशस्ताः पाषाणाः अष्टावेते न संशयः । कृष्णवर्णाशिला या तु शुक्ला हीरकसंयुता ॥ सा शिला श्रीकरी ज्ञेया पुत्र पौत्र विवर्धिनी । सितवर्णा तु या कृष्णः हीरकैः शबलीकृता ॥ बहुदोषकरी सा तु कृष्णा वा रक्त हीरकैः । सर्ववर्णेषु शुक्लेषु प्रशस्तं हीरकं स्मृतम् ॥ (विष्णुधर्मोत्तर. 3, 90, 35 व 21-24) अथोपदेश श्रवणविधिं - कृतदेवादिकृत्यः सन्नुपदेशं नवं शुभम् I श्रोतुकामो गुरोः पार्श्वेगच्छे दच्छाशयः पुमान् ॥ 189 ॥ आत्मोद्धार की इच्छा से विधिपूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर, पूजनादि कृत्यों के बाद मन में शुभाकांक्षा रखते हुए सदुपदेश श्रवण करने के लिए गुरु की सन्निधि में जाना चाहिए । गुरुदेवसम्मानं - कदाचित्कार्यतस्तस्य पार्श्वमेति यदा गुरुः । पर्युपास्तिस्तदा कर्तुमेवं शिष्यस्य युज्यते ॥ 190 ॥ कदाचित् किसी कार्य प्रयोजन से गुरु अपने शिष्य के पास आए तो शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की शूश्रूषा, सम्मान निम्नानुसार करें
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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