SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 58 : विवेकविलास चाहिए। देवप्रासाद को कभी ध्वज के बिना नहीं रखना चाहिए। दण्डमानमाह - दण्डः प्रकाशे प्रासादे प्रासादकरसङ्ख्यया। सान्धकारे पुनः कार्यों मध्यप्रासादमानतः।। 179॥ . शिल्पियों को चाहिए कि प्रकाशित प्रासाद पर ध्वजा का दण्ड प्रासाद की हस्त संख्या के अनुसार रखें और अन्धकार सहित प्रासाद पर मध्य प्रासाद के प्रमाणानुसार ध्वजा का दण्डमान रखना चाहिए।" घण्टाप्रमाणमाह - .................. 1. पुराणों में कहा गया है कि देवालय बनते ही कर्ता को वहां पर ध्वजारोहण करना चाहिए। जिस देवालय पर ध्वजा नहीं होती, वहाँ पर असुरों का निवास हो जाता है। ध्वजा से समस्त पापों का विनाश होता है। इसलिए हरसम्भव देवालय पर ध्वजारोहण करना चाहिए। इससे समृद्धि की प्राप्ति होती है अतः विधानपूर्वक ध्वजारोहण करना चाहिए- ततो ध्वजस्य विन्यासः कर्तव्यः पृथिवीपते। असुरा वासमिच्छन्ति ध्वजहीन सुरालये॥ ध्वजेन सकलं पापं जनस्य च विनश्यति। तत्मात्सर्वप्रयत्नेन दद्यादेवकुले ध्वजम् ॥ एवं कृते देवगृहे वृद्धिस्सदा स्यान्न हि संशयोऽत्र। तस्मात्प्रयत्नेन विधानयुक्तं देवालयं कार्यमदीनसत्त्व॥ (विष्णुधर्मोत्तर. 3, 94, 45-47) .. इसी प्रकार ज्ञानप्रकाशदीपार्णव (9, 104) व क्षीरार्णव (113,76) में भी यह वर्णन आता है। प्रासादमण्डनं में कहा गया है कि पुर, नगर-कोट, रथ और राजगृह सहित बावड़ी, कूप, जलाशयादि को ध्वजाओं से शोभायमान करना चाहिए। जब प्रासाद बन कर तैयार हो जाए तथा शिखर का कार्य सम्पन्न हो जाए तो उसे ध्वजा रहित नहीं रखना चाहिए। यदि देवालय को ध्वजाविहीन रख जाए तो वहाँ असुर, प्रेतादि निवास करने की आकांक्षा करने लगते हैं। देवालय पर विधिपूर्वक ध्वजारोहण करने से देव तथा पितर सन्तुष्ट होते हैं। दशाश्वमेध यज्ञकर्म के सम्पादन तथा पृथ्वी के विविध तीर्थों की यात्रा से जो पुण्य अर्जित होता है, वही पुण्य किसी देवायतन पर ध्वजारोहण करने से सुभग होता है, अनेक पुण्य मिलते हैं। ध्वजारोहणकर्ता के वंश में पूर्व की पचास तथा भविष्य की पचास और एक अपनी स्वयं की, इस प्रकार कुल 101 पीढ़ी के पितरों को नरकरूपी समुद्र से यह ध्वजा जहाजतुल्य पार लगा देती है, उनका उद्धार कर देती है- पुरे च नगरे कोटे: रथे राजगृहेस्तथा। वापी-कूप-तडागेषु ध्वजाः कार्याः सुशोभनाः ॥ निष्पन्नं शिखरं दृष्ट्वा ध्वजहीनं न कारयेत्। असुरा वासमिच्छन्ति ध्वजहीने सुरालये॥ ध्वजोच्छ्रायेण तुष्यन्ति देवाश्च पितरस्तथा। दशाश्वमेधिकं पुण्यं सर्वतीर्थधरादिकम्॥पञ्चाशत् पूर्वतः पश्चादात्मानं च तथाधिकम्। शतमेकोत्तरं सोऽपि तारयेत्ररकार्णवात्। (प्रासाद. 4, 45-48) तुलनीय-ध्वजोदये तु तुष्यन्ति देवाश्च पितरास्तथा। सदा सा कुलसन्तानसुपुष्ट्यायुष्करी भवेत्॥ ध्वजारोपे कृतं पुण्यं दशाश्वमेधिकं भवेत्। सर्वपृथ्वीतीर्थपुण्यं ते व्रजन्ति शिवालयम्॥ (अपराजित. 146, 12-13) * *अपराजितपच्छा में कहा गया है कि देवालय में शिखर पर स्थापेय ध्वजदण्ड के लिए प्रासाद की खरशिला से लेकर कलश के अग्र भाग की ऊँचाई तक के तीन भाग करें और उसके एक भाग की लम्बाई का ध्वजदण्ड रखना चाहिए। यह ज्येष्ठ मान का ध्वजदण्ड होता है। इसमें से अष्ठम और चतुर्थ भाग का ध्वजदण्ड बनाए जो क्रमश: मध्यमान और कनिष्ठमान का ध्वजदण्ड कहा जाता है। आदिशिलाद्भवं मानं ऊर्ध्वं च कलशान्तिके। तृतीयांशे प्रकर्तव्यो ध्वजादण्डः प्रमाणतः ।। अष्टमांशे ततो हीने मध्यमं शुभलक्षणम्। कनिष्ठं तद्भवेद्दण्डं ज्येष्ठतः पादवर्जितम् ॥ (अपराजित. 144, 4-5)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy