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________________ 44 : विवेकविलास यथाशक्ति ततश्चिन्त्यं तपो नित्यं तदाग्रतः। यस्य प्रभावतः सर्वाः सम्भवन्ति विभूतयः॥ 112॥ पूजादि सुकृत्य कर चुकने के बाद अपने सामर्थ्य के अनुसार यदि कोई तपश्चर्या करनी हो तो उसका विचार जिन प्रतिमा के सम्मुख करना चाहिए क्योंकि तपस्या के प्रभाव से समस्त सम्पदाओं की प्राप्ति होती है। अन्यदप्याह - धर्मशोकभयाहारनिद्राकामकलिकुद्धः। यावन्मात्रा विधीयन्ते तावन्मात्रा भवन्त्यमी॥ 113॥ धर्म, शोक, भय, आहार, निद्रा, काम, कलह और क्रोध- ये आठ बातें जितनी बढ़ाएँ, उतनी बढ़ती है और जितनी घटाएँ, उतनी घटती हैं। अपत्योत्पादने स्वामिसेवायां पोष्यपोषणे। धर्मकत्येच नो कर्तं युज्यन्ते प्रतिहस्तकाः॥ 114॥ अपनी स्त्री से पुत्रोत्पन्न करना, अपने स्वामी की सेवा करना, माता-पिता, स्त्री- पुत्रादि का पोषण और धर्मकृत्य- इन चारों कार्यों में किसी अन्य प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं वरन् ये कार्य तो स्वयं ही करने चाहिए। न्यायसभासनेस्थितिं - संवृताङ्गः समज्यायां प्रायः पूर्वोत्तराननः। स्थिरासने समासीत संवृत्य चतुरोऽञ्चलान्॥ 115॥ यदि कभी पञ्चायत या न्याय सभा में बैठना हो तो अच्छे वस्त्र पहनने चाहिए। सभा में जाकर स्थिर आसन पर प्रायः पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह रखकर और वस्त्र के चारों पल्लुओं को समेट कर बैठना चाहिए। अधमर्णारिचौराद्या विग्रहोत्पतिनोऽपि च।। शून्याने स्वस्य कर्तव्याः सुखलाभजयार्थिभिः ॥ 116॥ सुखाभिलाषा, लाभ एवं जयार्थी पुरुषों को न्याय सभा में, अपने लेनदार को, शत्रु को, चोर को, अपने पर आरोप लगाने वाले को और दूसरे को- ऐसे ही अन्य पुरुषों को अपने शून्य पार्श्व अथवा जिस भाग की नासिका न बहती हो या बन्द हो, उस ओर रखना चाहिए। स्वजनस्वामिगुर्वाद्या ये चान्ये हितचिन्तकाः। जीवाने ते ध्रुवं कार्या वाञ्छितार्थं विधित्सुभिः ॥ 117॥ अपना इच्छित कार्य करने वाले लोगों को अपने स्वजन को, स्वामी या गुरु को और दूसरे भी जो अपने शुभचिन्तक हों, उन सब मनुष्यों को अपनी जिस ओर
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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