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________________ विकल्पविरहादात्मज्योतिरुन्मेषवद्भवेत् । तरङ्गविगमाद्दूरं स्फुटरत्न इवाम्बुधिः ॥ 50 ॥ जिस प्रकार उछलती उर्मियों के ठहर जाने पर सागर के भीतर विद्यमान रत्नादि दिखाई दे सकते हैं, वैसे ही विकल्प का सर्वथा अभाव हो जाने पर चैतन्य ज्योति प्रकट होती है । विषयेषु न युञ्जीत तेभ्यो नापि निवारयेत् । इन्द्रियाणि मनः साम्याच्छाम्यन्ति स्वयमेव हि ॥ 51 ॥ इन्द्रियों को विषयों में कभी जोड़े भी नहीं और रोके भी नहीं, क्योंकि मन में यदि साम्य हुआ तो इन्द्रियों की दौड - भाग स्वतः शान्त हो जाती है । इन्द्रियाणि निजार्थेषु गच्छन्त्येव स्वभावतः । स्वान्ते राग विरागो वा निवार्यस्तत्र धीमता ॥ 52 ॥ अथ ध्यानस्वरूपनिरूपणं नामाख्यं एकादशोल्लास: : 271 इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से ही अपने-अपने विषय में विचरण करती हैं किन्तु विवेकी पुरुष को विषय के सम्बन्ध से मन में राग-द्वेष नहीं रखना चाहिए । यातु नामेन्द्रियग्रामः स्वान्तादिष्टो यतस्ततः । न वालनीयः पञ्चास्य सन्निभो वालितो भवेत् ॥ 53 ॥ • साधक के मन के अधिकार में रहा हुआ इन्द्रियों का समूह अपनी इच्छानुसार चाहे जिस विषय में जाए, उसे नहीं रोकना चाहिए। क्योंकि यदि हठात् रोका जाए तो सिंह की भाँति क्षोभ पाता है। रूपातीत ध्यानमाह निर्लेपस्य निरूपस्य सिद्धस्य परमात्मनः । चिदानन्दमयस्य स्याद्ध्यानं रूपविवर्जितम् ॥54॥ कर्म लेप रहित, निराकार और चिदानन्दमय ऐसे सिद्ध परमात्मा का ध्यान करना 'रूपातीत' ध्यान कहलाता है। स्वर्णादिबिम्बनिष्पतौ कृते निर्मदनेऽन्तरा । . ज्योतिःपूर्णे च संस्थान रूपातीतस्य कल्पना ॥ 55 ॥ स्वर्णादि का बिम्ब - स्वरूप बनाया हो, उसके द्वार का अन्तर निकाल डाला हो और बिम्ब का स्थान ज्योतिपूर्ण है - ऐसे स्वरूप में रूपातीत की कल्पना होती है। तत्त्वमाह - यदृश्येत न तत्तत्त्वं यत्तत्त्वं तन्न दृश्यते । देहात्मान्तर्द्वयोर्मध्यभावस्तत्त्वं विधीयते ॥ 56 ॥ जो दिखाई देता है वह तत्त्व नहीं और जो तत्त्व है वह दीखता नहीं। शरीर
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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