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________________ , 240 : विवेकविलास इसी अर्थ में रौद्रध्यान धारण करने वाले, पाखण्डी, निर्दय, विदेशी, धूर्त, एक बार अपने साथ भिड़े हुए, बालक, योषिता, सोने का काम करने वाले, जलाधारित व अग्न्याधारित जीविका वाले, स्वामी, असत्य वक्ता, अधम, प्रमादी, पराक्रमी, कृतघ्न, तस्कर और नास्तिक लोगों का तो किसी भी समय कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए। नित्यविचारणीयप्रश्नाह - किं कुलं किं श्रुतं किं वा कर्म कौ च व्ययागमौ। का वाक्शक्तिः कियान्क्ले शः किं च बुद्धिविजम्भितम्॥389॥ का शक्तिः के द्विषः कोऽहं कोऽनुबन्धश्च सम्प्रति। कोऽभ्युपायः सहायाः के कियन्मानं फलं तथा ॥ 390॥ कौ कालदेशौ का चैव सम्पत्प्रतिहते परैः। वाक्ये ममोत्तरं सद्यः किञ्च स्यादिति चिन्तयेत्।। 391॥ ' समझदार व्यक्ति को सदा ही मेरा कुल कैसा है? मुझे शास्त्र का अभ्यास कितना है? कार्य कैसा है? आय-व्यय कितना है? मेरे वचन की शक्ति कितनी है? कार्य में परेशानी कितनी? अपना बुद्धि-कौशल कितना है? सामर्थ्य कितना है? शत्रु कौन है? मैं कौन हूँ? अभी प्रसङ्ग कैसा है? इसके लिए क्या उपाय है? सामग्री कैसी है? मेरे शत्रु मेरे वचन का खण्डन कर देंगे तो मैं क्या प्रत्युत्तर दूंगा- इस बातों पर विचार करते रहना चाहिए। यत्पार्श्वे स्थीयते नित्य गम्यते वा प्रयोजनात्। गुणाः स्थैर्यादयस्तस्य व्यसनानि च चिन्तयेत्॥392॥ हम जिसके निकट रहते हैं या कारणवश से जिसके पास हमेशा जाते हैं, उसमें स्थिरादि गुण है या दोष? इस बात पर भी विचार करना अपेक्षित है। उत्तमैका सदारोप्या प्रसिद्धिः काचिदात्मनि। अज्ञातानां पुरे वासो युज्यते न कलावताम्॥ 393 ॥ समझदार पुरुषों को ऐसी कुछ उत्तम कला अपने पास रखना चाहिए कि उसे कलाधीर होकर भी नगर के एक ओर नहीं.पड़ा रहना पड़े (क्योंकि ऐसा उपेक्षापूर्ण जीवन उचित नहीं है)। * क्षेमेन्द्रकृत 'कलाविलास' में ऐसी कई कलाओं का वर्णन आया है। क्षेमेन्द्र की कलाओं की संख्या लगभग डेढ़ हजार है। प्रबन्धकोश, कामशास्त्र, ललितविस्तर आदि ग्रन्थों में भी कलाओं का वर्णन है। वात्सायन के टीकाकार ने चौंसठ कलाओं का नामोल्लेख इस प्रकार किया है- 1. गीतम्, 2. वाद्यम्, 3. नृत्यम्, 4. आलेख्यम्, 5. विशेषकच्छेद्यम्, 6. तण्डुल कुसुमवलि विकारा, 7. पुष्पास्तरणम्, 8. मणिभूमिकाकर्म, 10. शयनरचनम्, 11. उदकवाद्यम्, 12. उदकाघात, 13. चित्रयोगाः, 14. माल्यग्रथनविकल्पाः, 15. शेखरकापीडयोजनम्, 16. नेपथ्य प्रयोगाः, 17. कर्णपत्रभङ्गा, 18.
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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