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________________ 198 : विवेकविलास शल्यं लोहादि दंष्टाहेर्जरापि च रसायनम्। वृष:पोषः शरीरस्य व्याख्याष्टाङ्गस्य लेशतः॥ 140॥ काय अर्थात् जठराग्नि के विकार से होने वाले रोगों का निवारण कायचिकित्सा है। बालक को होने वाले रोग का निवारण बालचिकित्सा है। भूतपिशाचादिकों के उपद्रवों का निवारण भूतचिकित्सा है। ग्रीवा से ऊपर मुँह, नासिका, कर्ण, नेत्र, सिर आदि के रोगों का उपाय करना ऊर्ध्वाङ्गचिकित्सा है। शल्य या चीरफाड़ से रोगोपचार करना शल्यचिकित्सा है। वृद्धावस्था को रोकने और युवावस्था को अक्षुण्ण रखने के उपाय रसायन कहे जाते हैं जबकि अधिक काल तक स्त्रीसङ्गादि हो सके, ऐसा उपाय वाजीकरण कहा जाता है। ऐसे आयुर्वेद के आठों ही अङ्गों की विवेचना होती है।* चित्रकर्माश्वगजादीनां चित्राक्षरकलाभ्यासो लक्षणं च गजाश्वयोः। गवादीनां च विज्ञेयं विद्वद्गोष्ठी विविक्षुणा॥141॥ विद्वानों की सर्वकला विशारद होने के लिए चित्रकला और लेखनकला का अवश्य अभ्यास करना चाहिए। अश्व, गज और गाय-बैल आदि के लक्षणों को और विद्वज्जनगोष्ठी भी जानना चाहिए।" सामुद्रिकस्य रत्नस्य स्वप्रस्य शकुनस्य च। मेघमालोपदेशस्यः सर्वाङ्गस्फुरणस्य च॥ 142॥ तथैव चाङ्गविद्यायाः शास्त्राणि निखिलान्यपि। ज्ञातव्यानि बुधैः सम्यग् वाञ्छद्भिः कीर्तिमात्मनः॥143॥ अपनी कीर्ति की कामना करने वाले सुज्ञपुरुषों को सामुद्रिकशास्त्र, * भूलोकमल्लसोमेश्वर ने कहा है कि जो परम्परा से पारङ्गत हो, सम्यक् रूप से अष्टाङ्ग चिकित्साविद् हो, शस्त्रकर्म की कला में दक्ष और मन्त्र-तन्त्रादि का जानकार हो, देह, शिरोरोग, कौमारभृत्य, विष विद्या, शल्यक्रिया, ग्रह विद्या, वृष, रसायन विद्या इन आठ विधियों में कुशल हो, रोगों के नाम, उनके निदान, बीमारियों को जो तत्त्वत: जानता हो, औषधियों की पहचान, नामादि को जानता है, वह वैद्यों में वरेण्य है-परम्पारङ्गताः सम्यगष्टाङ्गे तु चिकित्सिते। शस्त्रकर्मकलादक्षा मन्त्रे तन्त्रे च कोविदाः॥ देहे शिरसि वाले तु विषे शल्ये ग्रहेऽपि च। वृषे रसायने चैव कुशला भिषजोऽष्टसु॥ रोगनामनिदानं तु रुजं जानन्ति तत्त्वतः । औषध रूप-नामभ्यां जानन्तो भिषजो वराः ॥ (मानसोल्लास . 1, 2, 140-144) **चित्रकला के अभ्यास के लिए आचार्य ननजित् कृत विश्वकर्मीय चित्रलक्षणम्, सारस्वतचित्रशास्त्रम्, विष्णुधर्मोत्तरपुराणोक्त चित्रसूत्रम्, शिल्परत्नम्, समराङ्गणसूत्रधार, मानसोल्लास, अपराजितपृच्छा आदि ग्रन्थों को देखना चाहिए। मानसोल्लास, वशिष्ठस्मृति, अग्निपुराण आदि में लेखक के गुणादि पर विवरण मिलता है। अश्व,गज, गौ-वृषभादि के लक्षणों का वर्णन बृहत्संहिता, गरुडपुराण सहित नकुल के शालिहोत्रशास्त्रं, पालकाप्य के गजशास्त्रं, गवायुर्वेद, गजायुर्वेद आदि में हुआ है। विद्वज्जनगोष्ठियों का अच्छा वर्णन मानसोल्लास में आया है।
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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