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________________ 182 : विवेकविलास व शेष मध्यम जाननी चाहिए। अन्यान्य गणनक्षत्राह नोदितम् - W राक्षसामरमर्त्याख्य गणनक्षत्रकादिकम् । ज्ञेयं ज्योतिर्मतख्यातमिदमत्रेति नोदितम् ॥ 79॥ ज्योतिषशास्त्र में राक्षस, देवता, मनुष्य नामक गण और नक्षत्रादि प्रसिद्ध है। इसलिए यहाँ उनका वर्णन नहीं किया गया है।" अथ ध्रुवादिषोडशगृहाणां नामानि - ध्रुवं धन्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोरमम् । सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं सुपक्षं धनदं क्षयम् ॥ 80 ॥ * श्रीपति का मत है कि ताराबल का ज्ञान करने के लिए जन्म के नक्षत्र से अभीष्ट दिन के नक्षत्र तक गणना करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसमें नौ का भाग दिए जाने पर यदि एक आए तो जन्म की तास, दो आए तो सम्पद्, तीन आए तो विपत्, चार आए तो क्षेम, पांच आए तो पाप, छह आए तो शुभा (सिद्धा), सात आए तो वध (कंष्टा), आठ आए तो मित्र और नौ आएं तो अतिमित्र संज्ञक ताराएँ होती है। मान्यता है कि ये ताराएँ अपने नामानुसार ही फलदायी होती है। ताराओं में 2, 4, 6, 8, और 9वीं तारा शुभ होती है। जन्म की तारा मध्यम और शेष तीसरी, पांचवीं तथा सातवीं तारा को त्याज्य कहा गया है— जन्मद्वयासम्पदथो विपच्चक्षेमा च पापा च शुभा च वध । मैत्रातिमैत्रे च नवेतितारा: स्युर्जन्मभानिः परिवर्तनेन ॥ ( रत्नमाला, 11, 4) मान्यता है कि ये ताराएं अपने नामानुसार ही फलदायी होती है। ताराओं में 2, 4, 6, 8, और 9वीं तारा शुभ होती है। जन्म की तारा मध्यम और शेष तीसरी, पांचवीं तथा सातवीं तारा को त्याज्य कहा गया है । वृहस्पति ने शुभा की अपेक्षा साधक संज्ञाभिधान के साथ इन ताराओं के नाम गिनाए हैंजन्मसम्पद्विपक्षेम प्रत्यरिः साधको वधः । मैत्रं परममैत्रं च भवेत्संज्ञास्तु कर्मणाम् ॥ विपदि प्रत्यरिवधे प्रथमान्त्ये त्रिभागतः। विनान्येंऽशा शुभाः सर्वे सर्वेषु शुभ-कर्मसु ॥ (बृहद्दैवज्ञरञ्जनम् 28, 6-7 ) ** शिल्पदीपक में आया है कि गृह और गृहस्वामी का यदि एक ही गण हो, तो उत्तम प्रीति बनी रहती है। यदि एक का देवगण और दूसरे का मनुष्यगण हो तो मध्यम प्रीति जाननी चाहिए परन्तु यदि एक का मनुष्य गण और दूसरे का राक्षसगण हो तो वह मृत्युकारक कहा गया है। इसी प्रकार यदि एक का देवगण और दूसरे का राक्षसगण होता है तो वह मृत्युकारक जानना चाहिए। गृह व गृहस्वामी सन्दर्भ में यह मिलान शुभ होता है— स्वगणे चोत्तमा प्रीतिर्मध्यमा देवमानुषे । कलहो देवदैत्यानां मृत्युर्मानवराक्षसे ॥ (शिल्पदीपक 1, 33 ) 'देवगण' नक्षत्रों में मृगशिरा, अश्विनी, रेवती, हस्त, स्वाति, पुष्य, अनुराधा और श्रवण आते हैंमृगाश्विनी रेवती च हस्तः स्वातिः पुनर्वसुः । पुष्याऽनुराधा श्रवणमिति देवगणाः स्मृताः ॥ (तत्रैव 1, 34 ) 'राक्षसगण' नक्षत्रों में कृतिका, मूल, आश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, घनिष्ठा, शतभिषा और ज्येष्ठा आते हैं कृत्तिका मूलमषा मघा चित्रा विशाखिका । धनिष्ठा शततारा च ज्येष्ठा च राक्षसगणाः ॥ (तत्रैव 1, 35 ) 'मनुष्यगण' नक्षत्रों में भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, आद्रा और रोहिणी की गणना होती है- भरणी त्रीणि पूर्वाणि ह्युत्तरात्रयमेव च । आर्द्रा च रोहिणी चैव नवैते मानुषा गणाः ॥ ( तत्रैव 1, 36 )
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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