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________________ अंशकानयनमाह अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 181 मूलराशौ व्यये क्षिप्ते गृहनामाक्षरेष च । ततो हरोत्त्रिभिर्भागे यच्छेषं सोऽंशको भवेत् ॥ 75 ॥ इन्द्रो यमश्च राजा चाप्यंशकाश्च त्रयस्त्विमे । यदि मूल राशि में व्यय की और घर के नामाक्षर की संख्या मिलाएँ और तीन भाजित करें जो शेष रहे, उसे अंशक जानना चाहिए। एक शेष रहे तो इन्द्रांशक, दो रहे तो यमांशक, और सम भाग टूटे तो राजांश जानना चाहिए। * अधुना तारानयन सफलमाह ― गृहभस्वामिभैक्यस्य भक्तस्य नवभिः पुनः ॥76॥ यच्छेषं सा भवेत्तारा तारानामान्यमूनि च । जन्म सम्पद्विपत्क्षेम प्रत्यरिः साधनीति च ॥ 77 ॥ नैधनी मैत्रिका चैव तथा परममैत्रिका | चत्वारः षड् नव श्रेष्ठाः सप्तपञ्चत्रयोऽधमाः ॥ 78 ॥ -गृह के नक्षत्र और गृहपति के नक्षत्र की संख्या मिलाकर उसे 9 से भाजित करें और जो रहे उसे तारा जाने । (संख्यानुसार इनका नाम व फल इस प्रकार होगा ) यदि उक्त विधि से 9 का भाग देने से 1 शेष रहे तो जन्म तारा, 2 रहे तो सम्पत, 3 रहे तो विपत्, 4 रहे तो क्षेम, 5 रहे तो प्रत्यरि, 6 रहे तो साधनी, 7 रहे तो नैधनी, 8 रहे तो मैत्रिका, और 9 रहे तो परममैत्रिका नामक तारा जाने । इन नौ ताराओं में से चौथी, छठी और नवीं तारा श्रेष्ठ; तीसरी, पाँचवीं और सातवीं अधम अपराजित पृच्छा में इस प्रकार इनकी गणित और उपयोग प्रकार आया है— शृणु वत्स यथा चांशे वास्तुवेदे त्रिधा स्मृतः । एकैकक्रमयोगो वै शुभश्चाशुभ उच्यते ॥ यदुक्ता मूलराशो च आयार्थेषु फलं कृतम् । तत्र राशौ व्यये मिश्रे गृहनामाक्षराणि च ॥ गुणैर्भक्ते व्यथे शेषं अंशकं त्रिविधं विदुः । इन्द्रौ यमश्च राजा च त्रिभिर्नामभिरंशकाः ॥ प्रासाद- प्रतिमालिङ्गे जगतीपीठ मण्डपे । वेदीकुण्डश्रुक्षु चैव इन्द्रश्चैव ध्वजादिषु ॥ क्षेत्राद्विसंक्षा ? नागेन्द्रे गणाध्यक्षे च भैरवे । ग्रहमातृगणे देव्यामादित्ये च यमांशकः ॥ पुरप्राकारनगरखेटकूटे च कर्वटे । हर्म्ये च राजवेश्मादौ शस्तो राजा तथा मतः ॥ स्वर्गादिभोगयुक्तानां नृत्यगीतमहोत्सवे । प्रवचने च पाण्डित्ये इन्द्रांशश्चोत्तमो मतः ॥ विविधं च चाणिक्कर्म मद्यमांसादिकं तथा । इत्युक्तं क्रमतश्चेत्थं प्रशस्तं च यमांशके ॥ गजाश्वरथक्रीडायां यानजंभानकादिके। स्वर्गादितुल्यभोगाश्च राजांशक उदाहृताः ॥ त्र्यक्षराणि त्रिभेदाश्च त्रिदेवास्त्रिहुताशनाः । त्रयः कालास्त्रिसन्ध्याश्च रजः सत्वतमस्त्त्रयम् ॥ प्रमाणत्रयमेवं च ज्येष्ठमध्याधमैः क्रमात् । त्र्यंशकं तु समानीय वास्तुवेदभवं ततः ॥ ( अपराजित. 66, 21-31 )
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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