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________________ " 178 : विवेकविलास उपर्युक्त संख्या को आठ से भाग देते समय यदि 1 शेष रहे तो ध्वज, 2 रहे तो धूम, 3 रहे तो सिंह, 4 रहे तो श्वान, 5 रहे तो वृषभ, 6 रहे तो गर्दभ, 7 रहे तो गज और समभाग आए तो ध्वांक्ष या काक आय (8वीं) होती है। इन आठों आयों की क्रमशः पूर्व दिशा से लगा कर आठों दिशा में स्थिति जाननी चाहिए। आयस्थानानि - स्वे स्वे स्थाने ध्वजः श्रेष्ठो गजः सिंहस्तथैव च। ध्वजः सर्वगतो देयो वृषं नान्यत्र दापयेत्॥65॥ ध्वज, गज और सिंह- इन तीन आयों को अपने-अपने स्थान पर ही श्रेष्ठ जानना चाहिए। ध्वजाय सर्वत्र देय है परन्तु वृषभाय को अन्यत्र नहीं देना चाहिए। वृषः सिंहो गजश्चैव खेटे खर्वटकोट्टयोः। द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च॥ 36॥ वृषभ, सिंह और गज- इन तीन आयों को खेट (ग्राम, खेड़ा) खर्वट (गिरि की तलहटी का ग्राम) और परकोटा- इनमें देना शुभ है। इसी प्रकार गजाय को बावड़ी, कूप, और तालाब इत्यादि जलस्रोतों के लिए देना चाहिए। ___ आसनोयुधयोः सिंहः शयनेषु गजः पुनः। वृषो भोजनपात्रेषु छत्रादिषु पुनर्ध्वजः। 67॥ आसन और आयुध के लिए सिंहाय; शयन के लिए गजाय; भोजन पात्र के लिए वृषभाय और छत्र-चामर आदि के लिए ध्वजाय देनी चाहिए। अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वह्नयुपजीविनाम्। धूमं नियोजयत्किञ्च श्वानं म्लेच्छादिजातिषु॥68॥ धूमाय पाकस्थल या रसोईघर के लिए और अग्नि पर अपनी आजीविका चलाने वाले लोहार, स्वर्णकार, भङ्गारा आदि के गृह के लिए देनी चाहिए। म्लेच्छादि जाति के लिए श्वानाय देनी चाहिए। खरोवेश्यागृहं शस्तो ध्वाक्षः शेषकुटीषु च। वृषः सिंहो गजश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु॥69॥ * महेश्वरदैवज्ञ का मत है कि क्षेत्रफल की लम्बाई और चौड़ाई को गुणा करें और 8 से भाजित करें तो जो शेष रहेगा, उसको आय जानना चाहिए। इन आयों के नाम है- 1. ध्वज, 2. धूम, 3. सिंह, 4. श्वान, 5. वृषभ, 6. खर, 7. गज और 8. उष्ट्र। यदि उक्त गणना से ध्वजाय मिले हो तो पूर्वादि चारों दिशाओं में द्वार रखा जा सकता है, सिंहाय हो तो पश्चिम दिशा को छोड़कर पूर्व-दक्षिण में और उत्तर इन दिशाओं में द्वार रखें। वृषभ आय हो तो पूर्व दिशा में द्वार रखें व गजाय हो तो पूर्व व दक्षिण दिशा में द्वार रखना शुभ होता है- आयास्युर्ध्वज, धूम सिंह,शुनको क्षाणः खरे भो,ष्ट्रकाः, दैर्घ्य विस्तृति संगुणेऽष्टविहते ह्यायोऽथ शेषं भवेत् । सर्वद्वारइह ध्वजो वरुणदिग्द्वारं च हित्वा हरिः प्राग्द्वारो वृषभो गजो यमसुरेशाशामुखः स्याच्छुभः ।। (वृत्तशतं 67) ..
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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