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________________ .. अथ ऋतुचर्या नाम षष्ठोल्लासः : 157 ग्रीष्म का ताप आदि सेवन से कृशकाय लोगों के वातादि दोष बहुत कुपित हो जाते हैं। अतएव इस ऋतु में वात, पित्त, कफ, रस, रक्त आदि आठ धातु जिससे साम्य स्थिति में रहें और बिगड़े नहीं- ऐसे समधात उपाय करने आवश्यक हैं। कूपव्योमोः पयः पेयं न सरःसरिता पुनः। नावश्यायातपग्राम यानाम्भः क्रीडनं श्रयेत्॥16॥ इस ऋतु में कूप का और पुनर्वसु नक्षत्र के बाद बरसात का जल पीना चाहिए किन्तु तालाब या नदी का जल नहीं पीना चाहिए। कुहर में, धूप में अथवा बाहर गाँव . नहीं जाना चाहिए। जलक्रीड़ा भी नहीं करनी चाहिए। वसेद्वेश्मनि निर्वाते. जलोपद्रववर्जिते। स्फुरच्छकटिकाङ्गारे कुलमोद्वर्तनाञ्चितः॥17॥ इस ऋतु में धनवान पुरुष को शरीर पर केसर का आलेप कर पवन अथवा जल का उपद्रव जहाँ नहीं हो और खूब चमकती हुई आग की सिगड़ी जहाँ रखी हुई . हो, ऐसे गृह में रहना चाहिए। केशप्रसादनासक्तो रक्तधूपितवस्त्रभृत्। मिताशी चात्र यस्तस्मै स्पृहयन्ति स्वयं स्त्रियः॥18॥... जो व्यक्ति इस ऋतु में केशों को सुगन्धमय तेल लगाकर साफ कर रखे और रक्त चन्दन, अगरु आदि के धूप से सुगन्धित वस्त्र पहने और परिमित भोजन करे, उसे स्त्रियाँ स्वयं चाहती है। . अथ शरहतुचर्या - शरत्काले स्फुरत्तेजः पुञ्जस्यार्कस्य रश्मिभिः। . तसानां दुष्यति प्रायः प्राणिनां पित्तमुल्बणम्॥19॥ शरद ऋतु में तेज सूर्य की किरणों के ताप से परितप्त हुए मनुष्यों का पिस प्रायः कुपित हो जाता है। पानममन्नं च तत्तस्मिन् मधुरं लघु शीतलम्। सतिक्तकटुकं सेव्यं क्षुधितेनाशु मात्रया॥20॥ अतएव इस ऋतु में सुधीजनों को भूख लगते ही शीघ्र और मधुर, हल्का, शीतल, कुछ कटु और कुछ तीक्ष्ण अन्नपान परिमित रूप से लेना चाहिए। रक्तोमाक्षो विरेकश्च श्वेते माल्यविलेपन। सरोवारि च रात्रौ च ज्योत्स्नामत्र समाश्रयेत्॥21॥ इस ऋतु में रक्तमोक्षण करना चाहिए। इसी प्रकार दस्तावर, जुलाब लेना, श्वेत पुष्पहार पहनना, सफेद चन्दन का शरीर पर लेप करना, सरोवर का निर्मल जल हो जाता हा
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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