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________________ लिए भूमि परीक्षा, स्वामी-सेवक लक्षण, उद्यम प्रशंसा, भोजन विधि, सन्ध्याकाल विचार, शयन विधि, घटीयन्त्र, विष परीक्षा, विवाहावसर पर वर-वधू लक्षण, ग्रीष्मादि षड् ऋतु वर्णन, वर्षचर्या, श्राद्ध, वास्तु और शुद्ध गृहक्रम, गृहार्थ योग्यायोग्य वृक्ष व उनके फल, शिष्यावबोध व कलाचार्य व्यवहार, सर्पदंश के सम्बन्ध में विष के परिणाम पर वार, नक्षत्र, राशि, दिशा, दूतानुसार विचार, षड्दर्शन परिचय, देखने के योग्यायोग्य वस्तुएँ, परदेश गमन के नियम, मन्त्रणा विचार, जाति क्लेश व उसके परिणाम तथा एकात्म रहने के फल, संक्षेप में धर्मोपदेश, ध्यान-समाधि, ब्रह्मचर्य, आत्मा-जीव, तत्त्व, चार्वाकों के मतों की खण्डना, अन्तकाल में देह त्याग, समाधिमरण आदि का प्रभूत वर्णन हुआ है। प्रशस्ति में वायडगच्छ एवं समकालीन नरेशादि, उपदेशश्रवणकर्ता का नामोल्लेख किया गया है। लगभग प्रत्येक उल्लास के अन्त में उपसंहार और उल्लास के विषयों की जीवन में उपयोगिता इस ग्रन्थ की अन्यान्य विशेषता है। इस लक्षण-ज्ञानात्मक ग्रन्थ के श्लोकों की प्रामाणिकता का ही यह परिणाम है कि इसके श्लोक सायण माधवाचार्यकृत सर्वदर्शनसंग्रह (13वीं सदी), सूत्रधारमण्डन कृत वास्तुमण्डन (15वीं सदी), आचार्य वर्धमान सूरीकृत आचारदिनकर (15वीं सदी) वासुदेवदैवज्ञ कृत वास्तुप्रदीप (16वीं सदी), सूत्रधार गोविन्दकृत उद्धारधोरणी (16वीं सदी), टोडरमल्ल के निर्देश पर नीलकण्ठ द्वारा लिखित टोडरानन्द (16वीं सदी), मित्र मिश्र कृत वीर मित्रोदय के लक्षणप्रकाश (17वीं सदी) आदि में उद्धृत किए गए हैं। इसी प्रकार वास्तु, प्रतिमा सम्बन्धी कई मत ठक्कर फेरु (14वीं सदी) के लिए निर्देशक बने हैं। इस ग्रन्थ में तत्कालीन जीवन व संस्कृति की अच्छी झलक है। इसके सारे ही विषय रचनाकाल में तो उपयोगी थे ही आज भी इनका उपयोग किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। प्रसङ्गतः सभी विषय जीवनोपयोगी है और सभी के लिए बहुत महत्व के हैं। ग्रन्थकार का यह मत वर्तमान में धार्मिक-साम्प्रदायिक एकता का महत्व प्रतिपादित करता है- ऐसा कौन व्यक्ति है जो कि 'मेरा धर्म श्रेष्ठ है' ऐसा नहीं कहता? किन्तु जिस प्रकार दूर खड़े मनुष्य से आम अथवा नीम का भेद नहीं जाना जा सकता, वैसे ही धर्म का भेद उस मनुष्य से नहीं जाना जा सकता- श्रेष्ठो मे धर्म इत्युच्चै—ते कः कोऽत्र नोद्धतः। भेदो न ज्ञायते तस्य दूरस्थैराम्रनिम्बवत्॥ (10,14) जिनदत्तसूरि का 'विवेकविलास' के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ भी नहीं मिलता। और, लोकोक्ति भी यही है कि उनकी रचना का यह एक ही ग्रन्थ है। इस मान्यता के मूल में यह श्लोक उद्धृत किया जा सकता है कि जुगाली करने की भांति xiii
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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