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________________ अध्यात्म-कल्पद्रुम जानकर पानी पीजे छानकर" । आत्मश्लाघा के दृष्टान्त तो चुनाव के समय हमारे सन्मुख हो उपस्थित होते हैं । उपधान, धर्म शास्त्रपारायण, अोली या पर्युषण आराधन की कुंकुम पत्रिकाओं को देखिए, प्रायः प्राधा मेटर तो अयोग्य पदवियों से उनके स्वयं के द्वारा ही लिखा हुआ होता है वह भी आत्मश्लाघा का प्रत्यक्ष उदाहरण है। जीवन भर धर्म के कार्य न किए हों, येन केन प्रकारेण द्रव्योपार्जन कर उस पाप को धोने के लिए किन्हीं प्राचार्य का पल्ला पकड़ कर कहीं प्रतिष्ठा या उपधान या शास्त्र प्रकाशन में द्रव्य की सहायता कर अपना जीवन चरित्र (सिद्ध और साधक का) प्रकाशित करवाना भी आत्मश्लाघा है। जिन शास्त्रों का एक श्लोक भी न पढ़ा हो उन शास्त्रों के ढेर को आस पास रख अपना तैल चित्र बनवा कर अपने नाम से या उपदेश से चलती हुई संस्थाओं में लगवाना भी प्रात्मश्लाघा है। इन सब प्राणियों पर उपेक्षा रखना माध्यस्थ भावना है। श्रीमद् यशोविजयजी के शब्दों को ज़रा पढ़िए, "रागधरी जे जिहां गुण लहिये, निर्गुण ऊपर समचित रहिए।" कितना प्रभाविक विचार उपेक्षितों पर है । श्रीविनयविजयजी महाराज का नमूना भी देखिए, "माध्यस्थ भावना सांसारिक प्राणियों के लिए विश्राम लेने का स्थान है" । कई बिचारे प्राणी विपरीत मार्ग में लगे हुए हैं उनको समझाने का प्रयत्न करते हुए भी वे मोहांध हो रहे हैं, पापकारी व्यापार (हाथीदांत, लाख, रस, केश, विष आदि) करते हैं उनका हित चाहते हुए सच्ची सलाह भी दी जाती है परन्तु कर्मों के वशीभूत होने से उनका मन नहीं
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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