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________________ २६ अध्यात्म-कल्पद्रुम जिनके मन की प्राधियां (पीड़ाएं) नाश हो गई हैं वे सच्चे सुख को भोगते हैं ॥ ७ ॥ वंशस्थवृत्त विवेचन समता या उदासीनता पाए बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती है । पूर्वभव के पुण्योदय से ऐहिक सुख प्राप्त होते हैं तब प्राणी आनंद में विभोर रहता है । उसे धन का नशा छाया रहता है या अधिकार का मद रहता है, जिसके द्वारा वह अपने आपको भूल जाता है और उस मिले हुए धन या अधिकार से नए पापों का क्रम चलाता है। पाप उदय होते ही वे सब सुख-धन-अधिकार बादल की छाया की तरह नष्ट हो जाते हैं तब वह दुःखी होता है। कर्माधीनता से प्राणी संसारचक्र में फिरता है । अतः वास्तव में सुखी वही है जिसे इस संसार के खेल तमाशों का भान हो जाय और इन घटते बढ़ते पदार्थों की वास्तविकता का बोध हो जाय । भर्तृहरि राजर्षि ने भी कहा है कि : मही रम्या शय्या विपुल मुपधानं भुजलता, वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोयमनिलः । स्फुरद्दीपश्चंद्रो विरतिवनितासंगमुदितः, सुखं शांतः शेते मुनिरतनुभूतिनृप इव ।। अर्थात् जिसके लिए पृथ्वी ही सुखकर शैय्या है, लता सदृश भुजा ही सिराना है, आकाश ही चादर है, अनुकूल हवा हो पंखा है, चद्र ही दैदीप्यमान दीपक है, विरति ही आनंद देने वाली स्त्री है ऐसे मुनि शरीर पर भस्म लगाकर उसी प्रकार
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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