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________________ साम्यसर्वस्व ३६६ मान कहा अपमान कहा मन, ऐसो विचार नहि तस होई; राग नहिं अरु रोस नहिं चित्त, धन्य अहे जग में जन सोई॥१॥ ज्ञानी कहो अज्ञानी कहो कोई, ध्यानी कहो मनमाने ज्यु कोई; जोगी कहो भावे भोगी कहो कोई, जाकुं जिस्यो मन भावत होई। दोषी कहो निरदोषी कहो पिंडदोषी कहो को औगुन जोई; राग नहिं अरु रोष नहिं जाकुँ, धन्य अहे जग में जन सोई ॥२॥ साधु सुसंत महंत कहो कोई, भावे कहो निरगंथ पियारो; चोर कहो चाहे ढोर कहो कोई, सेव करो कोउ जान दुल्हारे । विनय करो कोउ ऊंचे बेठाव ज्यु दूर थी देख कोउ जारे; धार सदा समभाव चिदानंद, लोह कहावत सुनत नारे ॥३॥ समता के लिए उपाध्याय यशविजयजी कहते हैं कि : उपशमसार के प्रवचनने, सुजस वचन ए प्रमाणे रे । समता ही शास्त्र का सार है । समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्य काम । छार ऊपर ते लीपणुं, झांखर चित्राम ॥ अर्थात जो कोई प्राणी समता के बिना कोई भी पुण्य का काम करता है वह उसी तरह निरर्थक है जैसे ऊसर भूमि पर लीपना या वृक्ष के सूखे पत्तों के ढेर पर चित्र बनाना है । हे पुण्यशाली ! इस देव दुर्लभ मानव भव में यदि तू सुख चाहता है तो समता रख और अव्याबाध सुख का अंशतः यहीं पर अनुभव कर । तेरे रोग, शोक, भय, व्याधि आदि सब मिट जाएंगे।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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