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________________ साम्यसर्वस्व ३६५ वाला भी तू ही है। सुख के लिए भी तू ही कर्ता व अधिष्ठाता है । अच्छी बुरी, कम ज्यादा भावनाओं के अनुसार काम करने का जुम्मेवार भी तू ही है। प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष का आनंद अनुभव करने वाला भी तू ही। कर्म को करने वाला और मन को प्रेरणा देने वाला भी तू ही है अतः कर्म और मन भी तू ही है। ___जैन धर्मानुसार प्रात्मा शुद्ध, ज्ञानमय, अविनाशी और नित्य है। कर्मों के कारण इस पर पर्दै गिरे हुए हैं। उन पर्दो को दूर हटाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना आवश्यक है। आत्मा स्वयं ही कर्ता व भोक्ता है इसको किसी अन्य आत्मा की अपेक्षा नहीं है यह स्वयं तरता है व स्वयं ही डूबता है । हे आत्मा तू अपना वास्तविक रूप पहचान और अविद्या का त्याग कर । शास्त्रकार कहते हैं : "प्रज्ञानं खलु भोकष्टं, क्रोधादिभ्योऽति तीव्र पापेभ्यः ।। अर्थात क्रोध आदि अति तीव्र पापों से भी अज्ञान महान कष्ट देने वाला है। जब तक अज्ञान का नाश नहीं होगा तब तक साध्य नजर में नहीं आएगा। अतः हे भाई ! तू जागृत हो, पुरुषार्थ कर और वीर्य को काम में लाकर मोक्ष साध ले । सुख दुःख का मूल क्रमशः समता, ममता निःसंगतामेहि सदा तदात्मन्नर्थेष्वशेषेष्वपि साम्यभावात् । प्रवेहि विद्वन् ममतैव मूलं, शुचां, सुखानां समतैव चेति ॥३॥ अर्थ हे आत्मा ! सभी पदार्थों पर सदा समता भाव
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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