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________________ शुभवृत्ति ३८५ आज विहार करने की पद्धति साफ विपरीत होती जा रही है । एक ही बड़े शहर में बारबार चौमासा करने पर भी साधु संतुष्ट नहीं होते हैं, शहरों का मोह, गोचरी में आसक्ति, दृष्टि रागी श्रावकों की भक्ति, रूप सुन्दरियों के मीठे वचन कइयों को वहां से खिसकने नहीं देते हैं चाहे उन्हें उपासरा खाली करने के नोटिस भी दिया जावें तो भी नहीं हटते हैं । चातुर्मास की मर्यादा चार मास से आठ मास तक बढ़ गई है । कई साधु आठ नौ मास स्थिर रहकर १-२ माह आसपास के तीर्थों में घूमकर फिर वहीं जा पहुंचते हैं । जहां विहार की आवश्यकता है वैसे प्रातों में जाते ही नहीं हैं, इस परिपाटी से उनका संग्रह-परिग्रह प्रमाद, आसक्ति, अज्ञान बढ़ रहा है, शास्त्र की हीलना हो रही है श्रावक पथ भ्रष्ट व प्राचार भ्रष्ट हो रहे हैं मंदिरों के द्वार बंद हो रहे हैं घोर अशातन हो रही है पर साधुओं को इसकी परवाह नहीं है वे शास्त्र को नहीं मानते हैं । अतः हे मुनि तू नवकल्पी विहार कर और स्व पर का कल्याण साध ले । स्वात्म निरीक्षण-परिणाम कृताकृतं स्वस्य तपोजपादि, शक्तीरशक्तीः सुकृतेतरे च । सदा समीक्षस्व हृदाथ साध्ये, यतस्व हेयं त्यज चाव्ययार्थी ॥६॥ अर्थ तप, जप आदि तूने किए हैं कि नहीं ? अच्छे और बुरे काम करने में तेरी शक्ति, अशक्ति कितनी है ? इन सभी विषयों का अपने हृदय में सदा विचार कर । हे ४७ ho
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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