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________________ ३८४ अध्यात्मक-कल्पद्रुम समानता प्रतिपादित करने वाले हों। तू जगत का हितैषी बनकर प्रमाद को त्याग कर गांव अथवा कुल में नवकल्पी विहार कर ॥ ५॥ उपजाति विवेचन हे साधु ! तू निष्पाप, एकांत धर्म के हेतुभूत, स्व पर के लिए समभावी उपदेश दे। उपदेश देने में तेरा सांसारिक हित कुछ भी छुपा न होना चाहिए। अपनी विद्या के प्रदर्शन के लिए या अपनी कीर्ति पताका फहराने के लिए या अपने नाम की विरुदावली छपवाने के गुप्त हेतु से या अपनी इच्छित भोगलिप्सा की पूर्ति के सिए या अपने सांसारिक कुटुम्ब के पोषण के लिए तू उपदेश न दे। तेरा उपदेश स्वयं तुझे और श्रोताओं को भी हितकर हो साथ ही इष्ट व अनिष्ट पदार्थों में समान भाव लाने वाला हो, वैराग्य की पराकाष्ठा को पहुंचा हुवा हो जिसे सुनकर श्रोताओं की दृष्टि स्वर्ण व लोह को, सुगंध और दुर्गंध को एक जैसी बुद्धि से देखने लग जाय अर्थात इच्छित पर राग व अनिच्छित पर द्वेष रहित हो जाय। . साधु को नवकल्पी बिहार अवश्य करना चाहिए । कार्तिक पूर्णिमा से अषाढ़ सुदी चवदस तक आठ मास के पाठ बिहार और चौमासे का एक विहार ऐसे नौ विहार करने चाहिये । साधु इसमें कभी प्रमाद न करे जगत का हित सम्मुख रखकर विहार करे। विशेष शिक्षण, रोग, वृद्धता या शासन का अपूर्व शास्त्रोक्त लाभ इन कारणों के सिवाय साधु एक स्थान पर विशेष न रहे।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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