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________________ मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३६५ भी ऐसे ही मार्मिक वचनों का प्रयोग कभी कभी हो जाता है अतः उस समय कम से कम बोलने की पूरी आवश्यकता है। तिथंकर महाराज और वचन गुप्ति को आदेयता अत एव जिना दीक्षाकालादाकेवलोद्भवम् । प्रवद्यादिभिया ब्रूयु नित्रयभृतोऽपि न ॥ ६ ॥ अर्थ-इसी कारण से जिन, (तीर्थंकर) तीन ज्ञान के धारक होते हुए भी दीक्षा काल से लेकर केवल ज्ञान की प्राप्ति तक पाप के डर से कुछ भी नहीं बोलते हैं ॥ ६ ॥ अनुष्टुप विवेचन–सावध वचन बोलने का अनिष्ट फल होता है इसी कारण से जिनेश्वर देव भी छद्मस्थ अवस्था में अर्थात् गृहस्थाश्रम छोड़कर साधुपन स्वीकार करके केवल ज्ञान होने के पूर्व को अवस्था तक मौन धारण कर लेते हैं। इस समय में उनको अनेक उपसर्ग (कष्ट) आते हैं फिर भी अपने बचाव के लिए एक शब्द भी नहीं बोलते, प्रात्मध्यान करते हुए उन्हें कितनी ही सिद्धियां उत्तरोत्तर प्राप्त होती हैं लेकिन एक भी सिद्धि को प्रयोग न करते हुए वे एकदम मौन रहते हैं, वैसी अवस्था में भी उनको पाप का डर रहता है । अतः जो प्रतिदिन सांसारिक चर्चा करते रहते हैं, अनुमान से परिणाम की घोषणा करते रहते हैं, किसी के लिए कुछ का कुछ अन्दाज लगाते हैं उनका क्या होगा? अतः सावध वचन का त्याग करना चाहिए एवं निर्थक बोलकर कर्म बंध नहीं करना चाहिए। बड़े बड़े
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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