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________________ ३६० अध्यात्म-कल्पद्रुम रूपातीत-शुद्ध स्वरूप, अखण्ड आनंद, चिद्घनानंदरूप, परमात्म भाव प्रकाश । इस ध्येय में मन को लगा देना, यह ध्यान है और ऐसा करके मन की स्थिरता लाना यह योग का मुख्य अंग है। जैन शास्त्रकार ध्यान का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि"रागाइ विउट्टणसहं झाणम्' अर्थात रागादि को नष्ट करने में जो समर्थ हो वह ध्यान है। ध्यान चार प्रकार का है उसमें आर्त और रौद्र ये दो दुर्ध्यान हैं तथा धर्म और शुक्ल ये शुभ ध्यान हैं, इनका स्वरूप बहुत सूक्ष्म है। इनके चार चार भेद हैं धर्म ध्यान के चार भेदों में से पहला-"प्राज्ञाविचय ध्यान" है सर्वज्ञ के वचनों में परस्पर विरोध नहीं है ऐसा समझकर उसका चिंतन करना, इसकी खूबी समझना यह प्रथम धर्म ध्यान है। इससे "अपाय विचय ध्यान" में - राग द्वेष कषाय प्रमाद किस किस तरह के दुःख उत्पन्न करते हैं यह विचारना और पाप कर्मों से पीछे हटना, यह धर्म ध्यान का दूसरा भेद है। तीसरा भेद 'विपाक विचय" ध्यान है। कर्म का बंध और उदय विचारना उसका शासन, तीर्थंकर चक्रवर्ती जैसों पर भी है, उसकी चलती हुई शक्ति और जगत का व्यवहार कर्म विपाक से ही चलता है इस संबंध में विचार करना, धर्म ध्यान का तीसरा भेद है। अंतिम, "संस्थान विचय ध्यान" है। इसमें लोक का स्वरूप विचारना है। चौदह राजलोक, उत्पत्ति स्थिति और नाशवाले जीव, अजीव आदि छ: द्रव्य युक्त लोकाकृति का चिंतन करना। इसी प्रकार से शुक्ल ध्यान के भी चार भेद है
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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