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________________ मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३५६ विवेचन-श्री अध्यात्मोपनिषद (योगशास्त्र) के पांचवें प्रकाश में अनुभवी योगी श्रीमान हेमचंद्रसूरिजी ने कहा है कि पवनरोध (श्वास को रोकना) आदि कारणों से प्राणायाम का स्वरूप अन्य दर्शनकारों ने जो बताया है वह बहुत उपयोगी नहीं है । वह तो काल ज्ञान और आरोग्य के लिए जानने योग्य है किरण कि इसमें मन की प्रवृत्ति ही नहीं होती अतः मन की प्रवृत्ति न करना तो. मन का नाश करना है। एकेंद्रिय और विकलेंद्रिय के तो मन होता ही नहीं है परंतु इससे उनको लाभ नहीं होता है। मन को उपयोग में लाने के लिए उसमें स्थिरता प्राप्त करने की आवश्यकता है। मन की प्रवृत्ति के प्रवाह को रोकने में लाभ नहीं है परन्तु उसे सद् ध्यान में प्रेरित करना, उसी में रमण करना, उसी के संबंध में प्रेरणा द्वारा स्थिरता प्राप्त करना उपयुक्त है, "हठ योग" कम लाभदायक है ऐसा जैन धर्म का मत है । काय योग पर इससे थोड़ा नियंत्रण होता है परंतु मन की गति (बंधारण) समझकर उसे सद्ध्यान में जोड़ देना ही सर्वत्र अनुसरणीय है। मन के रोकने की भी आवश्यकता है परन्तु वह ( साधक को) अवस्था पर है। ध्येय चार तरह के हैं पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । पिंडस्थ की पांच धारणा है : पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्रम् । पदस्थ-नवकार आदि । रुपस्थ-जिनेश्वर देव की मूर्ति ।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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