SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिशिक्षा ३३१ निर्जरा निमित्त परीषह सहन महर्षयः केऽपि सहंत्युदीर्याप्युग्रातपादीन्यदि निर्जरार्थम् ।। कष्टं प्रसंगागतमप्यणीयोऽपीच्छन् शिवं किं सहसे स न भिक्षो ४४ अर्थ-जब बड़े ऋषि भी कर्म की निर्जरा के लिए उदीरणा करके भी आतापना आदि सहन करते हैं तब तू मोक्ष की इच्छा रखता हुवा भी प्रसंग से आए हुए अत्यंत अल्प कष्टों को क्यों नहीं सहता है ? ॥४४॥ उपजाति विवेचन—गत भवों व इस भव में बांधे हुए कर्मों की निर्जरा करने के लिए उन कर्मों की स्थिति आने से पहले ही उनको उदय में लाकर, उनको भोगकर उन्हें प्रात्मप्रदेश से अलग कर देने के लिए जान बूझकर कष्ट सहन करने को उदीरणा कहते हैं । उत्कट मोक्षाभिलाषी आत्मा प्रायः ऐसा ही करते हैं । गर्मी में दुपहर को गरम रेत में तप करना, पोष मास की सख्त सर्दी में कपड़े उतार कर नदी किनारे या अन्य ठंडे स्थान में तप करना आदि उदीरणा है । हे साधु जब तेरा लक्ष ही मोक्ष पाने का है तब तू उदीरणा करना तो दूर रहा, विपरीत इसके चारित्र पालते हुए साधारण कष्ट, भूख प्यास, विहार आदि में भो असनशील बनता है, निराश होता है, निश्वास डालता है यह अयोग्य है। तू भी उदीरणा करके या कष्ट सहन करके अपना हित कर ले। यति स्वरूप-भाव दर्शन यो दान मानस्तुतिवंदनाभिर्न मोदनेऽन्येन तु दुर्मनायते । अलाभलाभादि परीषहान् सहन्, यतिः स तत्त्वादपरो विडंबकः ४५
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy