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________________ ३३० अध्यात्म-कल्पद्रुम आसक्त हो जाता है इसके स्वभाव को विचारते हुए इस चंचल मनरूप घोड़े को सदा काबू में रखने के लिए, समता, दया, उदारता, सत्य, क्षमा, धैर्य ये गुण धारण करने चाहिए इनके साथ मिलकर यह वैसा ही बन जावेगा जब कि प्रमाद के साथ मिलकर प्रमादी बन जावेगा अतः तू इसे शीलांग के साथ जोड़ दे । मत्सर त्याग ध्रुवः प्रमादैर्भववारिधौ मुने, तव प्रपातः परमत्सरः पुनः । गले निबद्धोरु शिलोपमोऽस्ति चेत्कथं तदोन्मज्जनमप्यवाप्स्यसि ४३ अर्थ - हे मुनि ! तू प्रमाद करता है इस कारण से संसार समुद्र में तेरा पतन तो निश्चित है ही साथ ही दूसरों पर तू मत्सर करता है वह गले में बंधी हुई बड़ी शिला जैसा है अतः तू उस समुद्र तल में सकेगा ।। ४३ ।। से ऊपर भी कैसे आ वंशस्थ विवेचन - हे मुनि तू प्रमाद (मद्य, विषय, कषाय, विकथा, निद्रा) के कारण भव समुद्र में अवश्य डूबेगा साथ में ही मत्सर ( ईर्षा ) करने से समुद्र के तले में ही पड़ा रहेगा, मत्सररूपी पत्थर की शिला तेरे गले में बंधी रहने से तू ऊपर न प्रा सकेगा। जीवन में प्रमाद के साथ ही मत्सर को भी नरक का व भव भ्रमण का कारण बताया है अत: चाहे गृहस्थी हो चाहे साधु उसे प्रमाद व मत्सर से दूर रहना चाहिए । आत्म जागृति के बिना इनसे दूर नहीं रहा जा सकता है एवं इनसे दूर रहे बिना श्रात्मजागृति भी नहीं हो सकती है ।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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