SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिशिक्षा २८३ भावना से साधुपन स्वीकार करने पर भी यदि तू बरताव शुद्ध नहीं रखता है और केवल साधु के भेष से ही फूला फूला फिरता है और उस वेश के कारण भोले लोग तुझे सच्चा साधु समझते हैं, तू उनकी श्रद्धा का दुरुपयोग करके कई तरह के बहाने या झूठे कारण बताकर कपड़े, दवाइयां, घड़िया, पेन, पोस्ट कार्ड और आड़ी रीति से रुपये भी मंगाकर अपने विश्वस्थनीय व्यक्ति के पास भेजवाता है या ' किसी व्यक्ति को नौकर रखकर उसके पास जमा करवाता है और पश्चात् उस धन से मनमाना खानपान करता है इससे तू स्वयं अपने आप के लिए नरक के कष्ट निश्चित करता है। बिना गुण के ही तू पूजा की इच्छा रखता है इसीलिए लौकिक दृष्टांत बना है कि : मूंड मुंडाए तीन गुण मिटे सिर की खाज । खाने को मोदक मिले लोग कहें महाराज ॥ यदि तू केवल वेष ही साधु का रखता है, बर्ताव वैसा नहीं रखता तो निश्चित ही तू नरक में जाने वाला प्रतीत होता है । अतः वेष के अनुरूप आचरण कर । बाह्य वेश धारण करने का फल जानेऽस्ति संयमतपोभिरमीभिरात्मनस्य प्रतिग्रहभरस्य न निष्क्रयोपि । किं दुर्गतौ निपततः शरणं तवास्ते, सौख्यं च दास्यति परत्र किमित्यवेहि ॥ ६ ॥
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy