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________________ अध्यात्म-कल्पद्रुम इसी विषय पर अधिक विचार गर्भवासनरकादिवेदनाः, पश्यतोऽनवरतं श्रुतेक्षणैः । नो कषायविषयेषु मानसं श्लिष्यते बुध विचितयेति ताः ||५|| , १२४ अर्थ – हे बुद्धिमान ! ज्ञान चक्षु से गर्भावस्था तथा नरकादि की पीड़ा को बार बार देख लेने के बाद तेरा मन विषय कषाय पर नहीं लगेगा, अतः तू इसका उपयुक्त विचार कर ॥ ५ ॥ विवेचन - ज्ञान नयन खुल जाने के बाद योग्यायोग्य का भान होता है अत: बुद्धिमान वह है जो बार बार सत् शास्त्रों का अभ्यास करके ज्ञान नयनों द्वारा गर्भावस्था तथा नरकावस्था के दुःखों को जान लेता है बाद में वह उस दुःखद अवस्था से बचने का प्रयत्न करता है । केले के गर्भ जैसे कोमल एवं अत्यंत सुखी किसी जीव के प्रत्येक रोम में यदि कोई लोहे की गर्म सुई चुभावे, इससे जो उसे दुःख होता है उससे आठ गुणा दुःख प्राणी को गर्भ में हमेशा होता रहता है और जन्मते समय उससे भी अनंत गुणा अधिक दुःख होता है । नरक में प्राणी को अत्यंत क्षुधा, तृषा, शीतलता, उष्णता, पारस्परिक कलह, परमाधामी देवों की मार आदि दुःख चिरकाल तक सहना पड़ता है । तिर्यंचपने में ( पशु पक्षी योनि में ) नासिका छेदन, भार वहन, प्रहार, क्षुधा, तृषा, पराधीनता, रोगयुक्त होने पर भी
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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