SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देह ममत्व १०६ पतंग, वृक्ष, घास पात तक पहुंच जाता है । एक बार पतन हुवा कि फिर तो ऊंचा आना ही कठिन हो जाता है । इस तरह शरीर का कैदखाना मजबूत हो गया और ज्ञान दशा से प्रज्ञान दशा में पहुंच गया । अतः इस शरीर से सत्कर्म करके जन्म मरण की श्रृंखला को तोड़ना ही श्रेयस्कर है । जैसे कैदखाने में से निकलने के लिए तोता, मैना छटपटाते हैं वैसे ही हमें भी पुनर्जन्म को दूर करने के लिए और परमात्म पद पाने के लिये छटपटाना चाहिए तभी यह शरीररूपी कैद जो मलमूत्र का धाम, अज्ञान रूप अंधकार का निवास व जन्म जरा मृत्यु का कारण है, छूट सकेगी । हे भाई ! कई भवों से इसमें बंधा हुवा तू मानव भव को पाया है और तुझे आत्मा परमात्मा के विषय में सोचने का अवसर मिला है यदि फिर भी यश, कीर्ति, धन, स्त्री, पुत्र व परिवार के मोह में पड़कर अपना भान भूल गया और इस शरीर को ही सर्वस्व मानता रहा तो फिर इस शरीररूपी जेल से तेरा छुटकारा होना नितांत कठिन हो जायगा । शरीर से करने योग्य कर्त्तव्य की प्रेरणा चेद्वांछसीदमवितुं परलोकदुःखभीत्या ततो नं कुरुषे किमु पुण्यमेव । शक्यं न रक्षितुमिदं हि च दुःखभीतिः, पुण्यं विना क्षयमुपैति न वजिणोपि || ३ || अर्थ - यदि तू अपने शरीर को परलोक में होने वाले दुःखों के भय से बचाना चाहता हो तो पुण्य क्यों नहीं करता
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy