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________________ १०८ अध्यात्म-कल्पद्रुम शरीर रूपी कारा गृह से छूटने का उपदेश कारागृहाबहुविधाशुचितादिदुःखानिर्गतुमिच्छति जडोपि हि तद्विभिद्य । क्षिप्तस्ततोऽधिकतरे वपुषि स्वर्कम वातेन तद्बाढयितु यतसे किमात्मन् ॥२॥ अर्थ-मूर्ख प्राणी भी अनेक अशुचि आदि दुःखों से भरे हुए कैदखाने को तोड़कर बाहर निकलने की इच्छा करता है। तो फिर हे आत्मा, तेरे अपने ही कर्मों द्वारा उससे भी अधिक मजबूत, शरीररूपी कैदखाने में फंसा हुवा होते हुए भी उस को अधिक मजबूत करने का उपाय तू क्यों कर रहा है ? ।।२।। वसंततिलका विवेचन—संसार के कानून का भंग करने वाले को या हत्या, चोरी, काला बाजार करने वाले को कैद की सजा मिलती है। वह कैद अत्यंत कष्टकर, गंदी, संकड़ी, अंधकार युक्त होती है। उसमें से निकल भागने के लिए वह कैदी उस जेल को तोड़ने का प्रयत्न करता है, चाहे वह मूर्ख ही क्यों न हो। इसी तरह से प्रकृति के नियम भंग करने से मनुष्य रोगी बनता है और रोगरूप जेल में पड़ा रहता है। सबसे बड़ी और अवश्य भोग्य जेल जो कर्मों की है, उसमें प्राणी स्वयं बंधता जाता है और अनेक बंधनों को मजबूत करता जाता है इन कर्मों के कारण ही उसे देह प्राप्त होती है और उस देह के कारण ही वह फिर नई देह का निर्माण करता है और उत्तरोत्तर मानव से गिरकर पशु, पक्षी, कीट,
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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