SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्तसार ( २३१ ) अर्थः- जं० जे कोइ श्र० अस्नादिक आहार पा० पाणीनी जाती वि० अनेक प्रकारे खा० द्राक्ष खजुरादिक सा० लर्विगादिक मुखवास प० ग्रहस्थ कनेथी ल० पामीने, लावीने जो० जे तं० ते श्राहारादिक ति० त्रीविधे त्रिविधे मन, वचन, कायाए करी ना० जे बाल गि लापादिकने संविभाग करी दे, म० मन व० वचन का० कायाए करी सु० जलीपरे सं० जेणे श्राश्रव कषाय संवर्या बे एवो होय तेज जि० साधु ॥ १२ ॥ भावार्थ:- ए जुन ! इहां कयुं के, साधु श्राहारादिक पोते लावीने रोगी (गलाण) साधुने अनुकंपा श्राणीने प्रापे, तेनेज निखु (साधु) कहीए, एम कधुं; पण एम न कथं के, रोगी गीलाप साधुने देखी " अहो ! ए कर्मने वशे रोगी दुःखी बे. एनां कर्म तुटे तो ठीक. जो एने श्रादारादिक, औषधादिक देशुं तो एनां कर्म तुटतां रही जाशे." एवं चिंतवनुं तेने अनुकंपा कहीये, एम तो नयी कयुं. तमे मतने ली एवी कुयुक्ति लगावीने अनंत संसार केम वधारो हो ?-- 900 ॥ प्रश्न बोजो संपुर्ण ॥ " TELE ........ 996366GGE
SR No.022232
Book TitleSiddhant Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGambhirmal Hemraj Mehta
PublisherGambhirmal Hemraj Mehta
Publication Year1908
Total Pages534
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy