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________________ ( ११४ ) शतपदी भाषांतर. णी पण अमारे त्यांची लेवो त्यारे साधु बोल्या के अमारे एकज ठेकाणेथी भिक्षा लेवी कल्पे नहि माटे बधे ठेकाणे उचित घरोमा अमो भिक्षा लेशं. इत्यादि अनेक उदाहरणोथी सिद्ध थाय छे के मुनि श्रावकना घरेथीज भिक्षा लिए एम एकांत थइ शकतुं नथी. विचार ९१ मो. प्रश्नः — ओधनिर्युक्तिमां नियमं पाडयो छे जे एकज घरमा एकज संघाडाए जनुं, घणा संघाडाए जनुं नाह ते बात केम ? उत्तरः – ए वात स्थापनाकुलो एटले जे कुलो दानना अत्यंतश्रद्धालु होय तेना आश्री अवश्य करीने जणाय छे. कारण के तेवा कुलो साधुनी अनुकंपाना लीधे कदाचित् अशुद्धि पण करे. बाकी कुल साधारणपणे भिक्षाना देनार होवाथी जूदा जूदा संघाडाने ज़ूदी जूदी थोडी थोडी एक बे वस्तु आपता होय त्यां जो अशुद्धि थवानो संभव न होय तो कोइ वेला घणा संघाडा पण जड़ शके छे. बाकी अशुद्धिना संभव होय तो तो एक संघाडाने पण जर्बु नथी कल्पतुं माटे भावार्थ एके अशुद्धिनी गवेषणा करवी. वी एज निर्युक्तिमा आगल वात आवे छे के भिक्षा माटे बधा साधुओ फरता फरता श्रावकना घरे आवतां त्यां चैत्य होय तो ते वांदीने साधारण भिक्षा मळे तो ते ल्ये. वळी जे कछे जे “घणा साधुओना प्रवेशथी श्रावकना कुळो अंते दूमणा थईने ग्लानना माटे जोइती चीज पण आपे नहि " इहां पण ए रीते दूषण कही बताव्युं पण एम नहि कर्तुं जे बहु साधुनो प्रवेशज नहि कल्पे.
SR No.022231
Book TitleShatpadi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasinhsuri
PublisherRavji Devraj Shravak
Publication Year1895
Total Pages248
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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