SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५८ ) होना स्वाभाविक है। किन्तु यहाँ संजओ शब्द से यह याद दिलाया है कि 'तुम संयत हो अर्थात् सम्यक प्रकार से साधना का अभ्यास करनेवाले साधक हो।' इसलिये मन में आर्त मत बनो । अपना अभ्यास चलने दो-पुनरपि पुनः । ४. हे साधक ! वे कषाय तुम्हारी ही तो सत्ता में हैं । सत्ता के दो अर्थ-१ कर्म का उदय में न आकर आत्मा में जमे रहना और २. अधीन होना । यहाँ ये दोनों अर्थ ग्राह्य हैं। परन्तु पहला अर्थ प्रधान है। क्योंकि सत्ता में रहे हुए कर्म का ही क्षय किया जा सकता है, उदय में आये हुए का नहीं। ५. उन कर्मों के क्षय करने का उत्साह हृदय में बनाये रखना चाहिये । ६. 'तुम्हारी ही सत्ता में है' का दूसरा आशय है कि भले ही वे कर्म आत्मा में घर में आयी हुई धूल' के समान बाहर से आये हुए हैं । किन्तु सम्प्रति वे तुममें है, तभी उदय में आते हैं । इसका आशय यह है कि घर का कचरा देखकर आर्त बनना वृथा है, वैसे ही कषायों के उदय से आर्त बनना ठीक नहीं है। किन्तु उनकी सफाई का उद्यम करना ही उचित है और शक्ति का इसीलिये संचय करना है। ७. इस कथन से अगले परिच्छेद के 'कषायक्षयकरण' रूप विषय की सूचना भी दी गयी है। शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के परिणाम फलवान हैं-- परिणामेण - बंधोत्ति, सफलो सो हि होइ कि ? परिणामेण मोक्खोत्ति, सफलो सो न होइ कि ?॥६४॥ ‘परिणाम से बन्ध है' तो क्या वह (बंध) ही फलवान है ? और 'परिणाम से मोक्ष है'--तो क्या वह (कर्म से मुक्त होने का उपाय) फलवान नहीं है ? टिप्पण--१. 'परिणाम से बंध और परिणाम से मोक्ष'--यह उक्ति है। परिणाम से कषायादि रूप कर्मों का बन्ध होता है और फिर बद्ध कर्म फल देते हैं । अतः ‘परिणाम से बन्ध' यह उक्ति सही है। २. इस गाथा में यह प्रश्न उठाया है कि कर्मबन्ध ही फलवान है क्या कर्मक्षय के उपाय
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy