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________________ (८०) जंतुनो खोराक न मळवाथी परी जाय अने भूखे मरवू एका तपमां धर्म केम संभवे ? "समाधान" निदान के आवा तपमां धर्म न ज घटे. जरुर,-यदि अनिच्छाथी तप कर्यो होय, हुं भूखे मरु छं एवा विकल्पो उद्भवता होय तो तो ते तपमां धर्म न संभवे ए न्याय्य छे; परंतु जे तप खास जीगरना प्रेमथी को होय, कर्मक्षय अने तेम करवु ते मारो एकान्त सुविशुद्ध धर्म छे, देहनो ममत्व अल्प करवानो मा मुख्य मार्ग छे आवा विचारोथी यदि ते तप करीए तो आत्मा दुःखी क्यांथी थाय ? एमां तो आत्मा एकान्त खुशी ज मनावे छे अने सर्वज्ञ भगवंतोनी आवा अद्वितीय तप माटे जाज्ञा छे. अंदरना जंतुओना बचाव माटे ज मनुष्यो खोराक स्वीकारे छे, मा दलील तो हास्यास्पद जेवी के कारण जो एमज होय तो शरीरने निरोगी बनाववा लोको दवाओ, विरेचनादि स्वीकारी शामाटे अंदरना जंतुोनो नाश करता हशे ? केवल शरीरमां अने बाहिर जीवडामोने केम वधवा देता नथी ? तथा शुं क्षोको जंतुओने आराम पहोंचाडवा ज पाहार ले छे के पोताना शरीरनी पुष्टि माटे ! यदि जो आहारथी पोतानी पुष्टिना बदले एकान्त जंतुओनी वृद्धि थइ शरीरने हानि पहोंचती होय तो प्रत्येक मनुष्यो शुं आहार लेवानुं पसंद करे खरा ? विगेरे विगेरे विरोधी दलीलो .उपर बहु विचार करवो घटे छे. फरी शरीरमां जंतुओनी उत्पत्ति
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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