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(७८ ) साथे लागेला अनादिना निकाचित-अनिकाचित बने प्रकारना विविध कर्मो प्रजाली प्रजाली भस्मीभूत करे अथवा जे कर्मोने तपावी तपावी आत्मा आत्माथी अलग करे तेने शास्त्रमा तप कर्तुं छे. परमार्थ के-आत्मा शुभ एवा परमविशुद्ध परिणामोपूर्वक अनेक विचित्र खानपान अने तृष्णानी काइ पण वांछा विना केवल कर्मक्षयनी इच्छाथी ज पोतानी शक्ति अनुसार निरोध करे. एवं इंद्रियो तथा मन, वचन, कायाना प. वित्र योगोने बाधा न पहोंचे, खंडित न थाय एवी परम विशुद्ध क्रियाने सुविशुद्ध तप कह्यो छे. या प्रकारनो ज तप कर्मनो क्षय करी आत्माने ब्रह्मस्थानमा स्थापन करे छे; ज्यारे आ शिवायनो अमुक प्रकारनी लालसाओथी बनेलो तप मात्र आ जन्म के पर जन्ममां ते ते लालसामोर्नु ज पोषण करी कृतकृत्य थाय छे. आथी ज महर्षिोए ा बन्ने तपना अनुक्रमे निष्काम अने सकाम एवा नामो आप्या छे. आ बने तपो कष्ट अतिकष्टकारी होवाथी सामान्य जनता करी शकती नथी, एटले जे कोइ करे छे तेमां तेत्रो मुग्ध ज थाय छे; तथापि सकाम तप तो घणाए लोको स्वार्थ-लोभथी करे के ने तेमां पोते क्रेशने पण गणता नथी. जेमके-पैसा माटे, विषयो माटे लोको खानपान छोडी दे छे, अति गरमी के शीत विगेरे सहन करे छे, चार-पांच कलाको सुधी एकी पगे खडा रहे छे, रोगादि कारणे आठ, दश, पन्नर दिवसना उपवासो करे छे, एवी ज रीते आ अने जे लोको परलोकमां राज्य आदिना लोभथी विविध कष्टो सहन करे के ते सर्वने सकाम तप कह्यो छे. श्रावो तप तो घणाये