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(४५) आत्मा चोक्कस मान्य छे. श्रा आत्माने केटलाको नित्य कहे छे अने कोइ अनित्य पण कहे छे. नित्यपक्षमां " अप्रच्यु. तानुत्पन्नस्थिरैक स्वभावो हि नित्य " 'जेनो नाश न थाय, उत्पन्न न थाय अने सर्वदा स्थिर एक स्वभावमां रहे ते नित्य' या लक्षण होवाथी आत्मा जो उत्पन्न न थाय, नाश न पामे अने स्थिर एक ज स्वभाववान् होय तो जन्म तथा मरण कोने ? क्षणमां सुखी, क्षणमां दुःखी, क्षणमां, रोगी क्षणमां निरोगी आ अवस्थाओ कोनी ? बाल, यूवान अने वृद्ध अवस्था अनुभवनार कोण ? मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देवता आदि भावोमां रमनार कोण ? निदान के-उपरोक्त नियम प्रमाणे तो सर्वदा आत्मा एक ज रूपमा वर्तनशील मालूम पडवो जोइए. जे मनुष्य होय ते मनुष्य ज, जे देव होय ते देव ज, जे नारकी होप ते नारकी, जे बाल होय ते बाल ज, रोगी होय ते रोगी, दरिद्र होय ते दरिद्री ज, धनी होय ते धनवान् ज, मूढ होय ते मूढ ज, ए रीते एक ज अवस्था प्रत्येक प्रात्माए अनुभववी घटे, किन्तु अवस्थाओ, परावर्त्तन थq न घटे.
अनित्यपक्षमां-आत्मा क्षणस्थायी होवाथी प्रथम क्षणो. त्पन्न आत्मा द्वितीय क्षणमां नथी रहेतो अने द्वितीय क्षणोत्पन्न प्रात्मा ए रीते भिन्न क्षणमां नथी रहेतो. ए रीते प्रत्येक क्षणमा आत्मा उत्पन्न थाय अने विनाश पामे अर्थात्-अनित्यवादपक्षमां क्षणोनी केवळ परंपरा ज मान्य छे. आ रीते कबुल करबाथी प्रथम क्षणमा उत्पन्न आत्माए जे कांइ पुण्य या पापकर्म