________________
(४०) निर्दोष जाणवु. अतः अहीं ग्रंथकार "दृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यतया" प्रथम कथीत श्लोकना या पदनी विस्तृत समीक्षा करवानो प्रकार दर्शावे छे
मात्मास्ति स परिणामी,
बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण ॥ मुक्तश्च तद्वियोगाद्धिं
साहिंसादि तद्धेतुः ॥ ११ ॥ मूलार्थ-प्रात्मा जीव छे, ते परिणमन स्वभावयुक्त तथा विचित्र एवा सद्भूत कर्मोथी बद्ध छे ने कर्मोथी मुक्त छे. अहीं हिंसा विगेरे आत्माने कर्मबंधमां अने अहिंसा विगेरे कर्मोथी छुटवामां कारणो जाणवा ॥
स्पष्टीकरण-अहीं आगमोक्त तत्त्वनी परीक्षा करवा अर्थे प्राचार्यश्री उपायो दविता वदे छ के-ज्यां आत्माजीवनी सत्ता प्रतिपादन करी होय, निदान के-पुण्य, पाप, मोक्ष, परलोक, दानादि सत्कर्मो विगेरे तत्त्वोनो मूलस्थंभ आत्मा ज छे. यदि आत्मा ज न होय तो उपदेष्टा, श्रोता अने उपदेश विगेरे कोना माटे ? तपश्चर्या तथा इंद्रियादि दमननुं फल शुं ? त्याग अने दान विगेरे शाना माटे १ अतएव ए सर्वनो मूल आधारभूत आत्मा छे ने ते आत्मानुं कथन ज्यां कर्यु होय ते ज सत्य आगम.