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( ३६ ) फरी जे प्रागमतत्व उत्सर्ग तथा अपवाद युक्त होय एटले दरेक वस्तुतत्व प्राधान्य पणे विधेय अने परिहार्य दर्शावी पुनः विशिष्ट कार्यनी अपेक्षाए विधेयतया दर्शावी होय, निदान केविशेषवादना स्थल पर विशेषवादनी अने सामान्यवाद स्थलमां सामान्य कथन बराबर कछु होय, किन्तु विशेष स्थानमां सामान्य कथन अने सामान्य स्थलमां विशेष कथन कर्तुं न होय. परमार्थ के-आने जैन शास्त्रो उत्सर्ग तथा अपवादवाद कहे छे. ए रीते जे प्रागमोक्त तत्त्व कथन कयु होय तेज आगमतत्व नितान्त ग्राह्य जाणवु. जेम के-जैनशास्त्रो हिंसामा पाप कहे छे, जलना जीवोनो प्रारंभ करवाथी विनाश थाय अने तेथी पापबंध थाय एवं कहे छे छतां मुनियो एक स्थलथी अन्यत्र गमन करता होय अने मार्गमां नदी आवे तो यतनापूर्वक उतरी सामे कांठे जाय एवी जिनाज्ञा छे. या स्थलमां जलना जीवोनो वध थाय छे तो पण तेोने पापबंध तुच्छ कह्यो छे, कारण के-वध करता आरंभमय प्रवृत्ति करे अने जीवोनो बचाव करवानी अपेक्षा राखे नहीं तेमज कल्याणनी इच्छा विनानो होय, टुंकमां सोपयोग वर्तन न राखतो होय एवो ज वधक अवश्य पुष्ट पापबंध करे एवं शास्त्रो कहे छे. अर्थात् उत्सर्गथी जीववधनो निषेध करी, तेमां पाप प्रतिपादन करी फरी अपवादथी नदी उतरवानी आज्ञा आपी तेमां थयेल जीववधथी अल्पबंध जणाव्यो, कारण के मुनि नदी उतर्या सिवाय सामे काठे जइ शके नहीं अने जलना जीवोनो तेमां