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________________ ( ३३) जीवनामक पदार्थ अने ते शरीरथी भिन्न तथा उत्पत्ति-विनाशरूप पर्याय-धर्मवान् छे. खाणमां रहेल माटी हमेशा कायम ज छे, परंतु जेम कुंभार आदिना हाथमां आव्या पछी तेना विविध घट आदि आकारो-पर्यायो बने छे, अने जूना जूना पर्यायो-धर्मनो नाश थतो प्रत्यक्ष देखाय छे. परमार्थ के-माटी ज्यारे घटपणे परिणमे त्यारे घटाकाररूप पर्याय उत्पन्न थयो अने माटीरूप पर्याय ते समये न ओळखावाथी तेनो नाश थयो. एवं माटीरूप द्रव्य घटमां कायम ज छे. तथाप्रकारे आत्मा पण जानवर, मनुष्य, देवता, नारकीरूप गतियोमा प्रत्यक्ष देखाय छे, कारण के-आत्मा सिवाय जगतनो सर्वव्यवहार लुप्तप्रायः थइ जाय, धर्म या पापकर्म पण निष्फल मानवा पडे, अत एव ज्ञानादि गुणवान् विलक्षण शक्तिवालो कोइ आत्मा नामक पदार्थ के एम मानवू जोइये. आआत्मा यद्यपि अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अजर, अमर, अविनाशी, धर्मवान् छे, तो पण माटीनी माफक नवा नवा रूपपणे परिणमे अने पूरातनरूपपणे तनो अभाव थतो अनुभवाय छे. जानवरपणुं छोडी मनुष्यपणुं, मनुष्यपणुं छोडी देवपणुं, देवपणुं छोडी जानवरपणुं एवं नारकीपणुं आ रीते आत्मा नवा नवा पर्यायो-धर्मो अनुभवतो तथा जूना जूना धर्मोनो त्याग करतो प्रत्यक्ष अनुभवपथमां आवे छे, अने प्रत्येक अवस्थामां आत्मा पोते शाश्वत ज देखाय छे; कारण के पूर्वावस्थामां अनुभवेल, सेवेल, करेल, दरेक कार्यों उत्तर अवस्थामा स्मृतिपथमां आवता तथा भोगवाता मालूम पडे छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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