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________________ ( ३९५ ) आरोप करवो ते परमार्थ प्रतिष्ठा ए वार्ता दर्शावी, ए ज. संबंध विशेष अनुसंधान ग्रंथकर्ता आगल जणावे छे. भावरसेन्द्रात्तु ततो, महोदयाज्जीवता स्वरूपस्य ॥ कालेन भवति परमाऽ प्रतिबद्धा सिद्धकाञ्चनता ॥८-८॥ मूलार्थ – मुख्य परमात्मानुं अवलंबनरूप भाव ते ज रसेन्द्र एटले पारो तेनाथी पुण्यानुबंधी पुण्यनो लाभ थाय, अने ते वडे कालक्रमे परम अस्खलित आत्मानुं सिद्ध सुवर्ण जेवुं रूप बने छे, एटले आत्मा सिद्धस्वरूपी थाय छे. " स्पष्टीकरण " धातुवादीयो अने सुवर्ण बनावनाराओ ताम्र आदि धातुथी सुवर्ण बनावे छे. आ लोको पोताना प्रयोगमां मुख्यतः पारानो उपयोग करे छे, कारण के आ लोको वनस्पतिना बलथी ताम्रधातुने पाराथी मार्या पछी, पारो अने धातु एक रूप थया पछी ज ताम्रधातुने सुवर्णरूप सिद्ध करे छे. एटले पारो ज परिणामे धातुना रूपने पलटावी नाखे छे, ए ज रीते स्वात्मा परमात्मा बनवा माटे आगल जंणावी गया ते रीते परमात्मानुं सुंदर ध्यान करे, स्वहृदयम परमात्म ध्याननी स्थापना करे, आनुं नाम अहीं भाव
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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