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________________ ( ३९३) तदतत्त्वकल्पनैषा, बालक्रीडासमा भवति ॥ ८-७॥ मूलार्थ-मोक्षस्थ आत्मानो मूर्तिमा आरोप करी पछी तेनी पूजा, स्नात्र आदि द्वारा तेने प्रसन्न करवा माटे प्रयत्न करवो, तो आ प्रयत्नथी ते देवने कांइ मुख्य उपकार थयो एम अहीं मानवू नहीं, कारण के-आ कल्पना ज अपारमार्थिक होवाथी आ प्रतिष्ठा बालक्रीडा तुल्य जाणवी. " स्पष्टीकरण" मूर्त्तिमां मोक्षस्थ आत्मानो आरोप करवो तेनुं नाम यथास्थित प्रतिष्ठा. आ मान्यता केटला अंशे विरोधी छे ते संबंधमां अमे उपर युक्तिथी विचार करी गया. वळी ए ज मान्यता विषयमां ग्रंथकर्ता विशेष विरोध दर्शावे छे. प्रथम तो मोक्षस्क्ष आत्मानो आरोप करवो ए ज वार्ता प्रमाण अने युक्तिथी खंडित छे, छतां मानो के मोक्षस्थ आत्मानो मूर्तिमा आरोप करवानो नितान्त आग्रह ज होय तो ते मोक्षस्थ आत्मा आरोपित मूर्त्तिने कोइ स्नात्र, पूजा, अलंकार आदि चडावी एम माने के में परमात्माने प्रसन्न कर्या, मारी आ पूजा परमात्माने पहोंची तो शास्त्रकर्ता कहे छे के आ पूजाथी कांइ पण मुख्यतः परमात्माने सुख के उपकार थतो नथी. परमार्थ ए के-तेथी परमात्मा लेश पण खुशी थता नथी, किन्तु आवी पूजा, स्नात्र, अलंकार आदि चडावी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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