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( ३७९) प्रकारनी प्रतिष्ठा कही छे. तेमां पण बाह्यने गौण-अप्रधान तथा आभ्यन्तरप्रतिष्ठाने मुख्य-प्रधान जणावी छे. अतएव ग्रंथकर्ता आदिमां आभ्यन्तरप्रतिष्ठानुं स्वरूप दर्शावी पछी बाह्यतुं स्वरूप कथन करे छे, कारण के-आभ्यन्तरप्रतिष्ठा विनानी बाह्यप्रतिष्ठा फलदात्री थाय नहीं. आगल आपणे तपासी गया छीए के-प्रतिष्ठा करनार शास्त्रोक्त विधिशुद्ध अने गुणवान् होवो जोइए, तेमज जे देवनी प्रतिष्ठा कर्तव्य होय ते देवना गुणोमां तेनो आत्मा परिणत थयो होय, तेज देवना ध्यानमां लीन होय एज आत्मा प्रतिष्ठाक्रियानो अधिकारी गण्यो छे. निदान ए के-प्रतिष्ठा करनार प्रथम तो परमात्माना संबंधी जे जे अलौकिक चमत्कारी गुणो होय तेने ध्यानद्वारा पोताना आत्मा साथे ऐक्यता करे, तेमा तन्मय थाय, स्व-आत्मा परमात्म तुल्य छ एम समानता विचारे, हृदय अने आत्म समीपे परमात्मानुं अलौकिक रूप खड़े करे, आ समये संसारनी विविध उपाधियो विसरी जाय, विषयनी ज्वालाओ बुझाइ जाय, कामक्रोधादि भूली जाय, अहंत्व अने ममत्वभावने दूर करे, कुटुंब, स्त्री, पुत्र, धन ए सर्वने तुच्छ, क्षणिक, स्वार्थी, अनन्तदुःखकारी मानी तेना पर विरक्तभाव धारण करे, केवल परमात्मानुं अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत अखंड निराबाध सुख, अनंतवीर्य, अनंतैश्वर्य, ज्योतिस्वरूप विचारे, स्व-आत्मामां स्थापन करे, आनुं नाम शास्त्रकार आभ्यन्तरमुख्य प्रतिष्ठा कहे छे. आ ज ताचिक