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________________ (३७८) कहेवाय के जे देवतत्त्व सर्वदा मूर्तिमा विद्यमान थाय. आ शंकाना निरसन माटे आचार्य भगवंत जणावे छे केविशिष्ट आत्मभावनी ज प्रतिष्ठा थाय छ किन्तु मुक्त अथवा संसारस्थ देवजाति विशेषनी मूर्तिमा स्थापना अमे जणावता नथी; परंतु मूर्तिमा विशिष्ट आत्मभावनोज आरोप करवो तेने अमे प्रतिष्ठा कहीए छीए. एटले उपरोक्त शंका अर्थवगरनी ज सिद्ध थाय छे, ए ज भावनुं दर्शन कराववा आचार्यश्री कथन करे छे. भवति च खलु प्रतिष्ठा, निजभावस्यैव देवतोद्देशात् ॥ स्वात्मन्येव परं यत्, स्थापनमिह वचननीत्योच्चैः ॥ ८-४ ॥ मूलार्थ-प्रतिष्ठित मुख्य देवना उद्देशथी देवविषयक आत्मिक भावनी ज स्व-आत्मामां स्थापना करवी एटले के-आत्मामां परमात्मभावनो पूर्ण ख्याल करवो तेनुं ज नाम अहीं आगमवचनथी उच्च-अतिशय मुख्य प्रतिष्ठा कही छे, अने जिनबिंबमां तो देवविषयक आत्मीयभावनो आरोप करवो तेनुं नाम बाट औपचारिक प्रतिष्ठा कही छे. " आत्मप्रतिष्ठा" स्पष्टीकरण-शास्त्रमा बाह्य अने आभ्यन्तर वे
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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