SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३७४) भगवंतनुं शासन वर्ते छ एटले शासनाधीश्वर महावीर देवनी मूर्ति पधरावीए, तेमज पार्श्वनाथ प्रभुना शासन वखते तेमनी पधरावीए ए रीते आ भरतक्षेत्रमा चतुर्विंशति जिनेश्वरो पैकी जे तीर्थकरनुं शासन होय अने ते तीर्थकरनी मूर्ति पधरावीये ते सर्व व्यक्तिप्रतिष्ठा जाणवी. आ परथी जे काले अन्य जिनेश्वरनुं शासन चालू होय अने अन्य तीर्थकरनी मूर्ति स्थापन करवी. आ प्रतिष्ठा मध्यम अर्थात् क्षेत्रप्रतिष्ठान्तर्गत जाणवी. वर्तमानमा जेम महावीरदेव- शासन विद्यमान छतां पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ विगेरे कोइ पण प्रभुनी मूर्ति स्थापन थाय छे, अतएव आ प्रतिष्ठा क्षेत्रप्रतिष्ठा कहेवाय; किन्तु आद्य प्रतिष्ठा न गणाय एम सिद्ध थइ चूक्यु. हवे 'क्षेत्राख्य' नामे द्वितीय प्रतिष्ठान स्वरूप जणावे छे. ऋषभाद्यानां तु तथा, सर्वेषामेव मध्यमा ज्ञेया ॥ सप्तत्यधिकशतस्य तु, चरमेह महाप्रतिष्ठेति ॥ ८-३॥ मूलार्थ-ऋषभदेव आदि तथा चतुर्विंशति जिनेश्वरोनी प्रतिष्ठा ते मध्यम प्रतिष्ठा जाणवी, अने उत्कृष्टथी एक सो ने सित्तेर (१७०) जिनेश्वरोनी प्रतिष्ठा तेनुं नाम अंतिम महाप्रतिष्ठा जाणवी.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy